इस बार मैं अपनी नानी जी की तेरही पर बनारस गया। फिर दूसरे दिन वहां से मुगलसराय अपने घर गया। पापा की नई कार में घूमने की इच्छा थी। बहुत अच्छा लगा। एक दिन का वक्त मिला सिर्फ उसी रात बनारस से ट्रेन पकड़नी थी। मैं घर के छोटे मोटे काम निपटा रहा था कि तभी बाबा जी (दादा जी) ने कहा कि उन्हें डीआरएम ऑफिस जाना है पास बनवाने। मैंने कहा कि मैं उन्हें ले चलूंगा। हम दोपहर में डीआरएम ऑफिस पहुंच गए। पास बनाने वाले क्लर्क से मिलकर जैसे ही हम लौटने लगे तभी ऑफिस के अंदर से एक के बाद एक लोगों की आवाजें आने लगीं। ऐ बाबू साहेब- ऐ बाबू साहेब(पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में रसूख़दार राजपूतों को बाबू साहेब कहकर बुलाते हैं) । मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक आदमी बाबा जी की ओर इशारा करके रुकने को कह रहा था। काफी बुज़ुर्ग था। एक पैर भी नाकाम हो गया था उसका। बाबा जी से मिलकर वो रोने लगा। उसने कहा कि रिटायर होने के बाद उसकी ज़िंदगी नर्क बन गई है। ना उसके बेटे उसे पूछते हैं और ना ही उसकी बहुएं। बेचारा चार डंडों वाली बैसाखी से खुद चार किलोमीटर चलकर डीआरएम ऑफिस पहुंचा था। उसने बाबा जी से भी कुछ ऐसा ही सुनने की उम्मीद की थी। लेकिन मैंने उस वक्त बाबा जी की आखों में जो चमक देखी वो आज तक नहीं देखी थी। बाबा जी ने सगर्व मेरा परिचय उन बुज़ुर्ग जनाब से कराया और कहा "ई हमारा पोता है,दिल्ली में टीवी न्यूज़ चैनल में रिपोर्टर का काम करता है, छुट्टी में घर आया था तो हमको लेकर यहां आ गया, पास बनने को दे दिये हैं, शाम को यही आकर पास ले जाएगा "। उम्र के आखिरी पड़ाव में, करीब 78 साल की उम्र में बाबा जी के चेहरे पर इतनी खुशी देखकर मेरा दिल बाग बाग हो गया। ऐसा लग रहा था मानो जीवन सफल हो गया। पापा से मिले संस्कार ही थे जो इस दिन के लिये तरस रहे थे कि बाबा जी मेरी पीठ पर हाथ रखकर मेरा परिचय अपने दोस्तों से करवाएं और उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाए। उनसे मिलने के बाद बाबा जी से करीब 10 ऐसे ही बुज़ुर्ग मिले और सबने पूछा " कैसे हैं बाबू साहब "। इस पर बाबा जी का जवाब था। "हम तो एकदम ठीक हैं आप सुनायें"। बाबा जी के इस जवाब में कटाक्ष भी था और घमंड भी। लेकिन मेरे लिये तो ये अपनी ज़िंदगी के सबसे अच्छे अनुभवों में से एक था। बाबा जी के चेहरे पर खुशी की वो लकीर तब तक नज़र आई जब तक मैं घर से रवाना नहीं हो गया। इस तेज़ी से बदलती दुनिया में जो बचे खुचे संस्कार हमारे अंदर हैं उसमें अपने बड़ों की इज्ज़त करना सबसे बड़ा संस्कार है। उम्मीद है कि इस घटना को पढ़ने के बाद आपलोग उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंचे एक बुज़ुर्ग की मानसिकता से वाकिफ हो चुके होंगे।
अगर आपके पास भी ऐसा कोई अनुभव हो तो मुझसे ज़रूर बांटियेगा।
धन्यवाद
Tuesday, November 10, 2009
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पढकर बहुत अच्छा लगा और इतना अच्छा लगा कि सोचने लगी काश तुम्हारे स्थान पर मैं होती, तो मेरे सर पे भी किसी बड़े का आशीर्वाद होता,किसी बड़े के गर्व और खुशी का अनुभव मुझे भी मिलता । अगर मुझे इतनी खुशी हो रही है तो सोचो कि तुम्हारे बाबा को कितनी खुशी हुई होगी ।तुम्हें मिले हुए अच्छे संस्कार की वजह से अपने बाबा पर गर्व है औऱ तुममें जो संस्कार है उसकी वजह से तुम्हारे बाबा को। बहुत बढ़िया एहसास....
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