Wednesday, January 13, 2010

राष्ट्रीय खेल कौन?बूझो तो जानें


किंग खान की फिल्म चक दे इंडिया से प्रेरित होकर मैंने ये टाइटल रखा है। वाकई में फिल्म और वास्तविकता में ज़मीन आसमान का फर्क होता है। देश के लिये एक बड़े शर्म की बात है कि राष्ट्रीय खेल की ये दुर्दशा है। हॉकी खिलाड़ी मुफ्त में मिलने वाली सरकारी नौकरी ना कर देश के लिये खेलना चाहते हैं। लेकिन बात साफ है-भूखे भजन ना होत कृपाला।


पता नहीं किसी के कान पर जूं क्यों नहीं रेंगती। किसी को देश का इतना बड़ा अपमान क्यों नज़र नहीं आता। आखिरकार जब हॉकी खिलाड़ियों ने भारतीय जनतंत्र के सबसे पापुलर हथियार (हड़ताल) का इस्तेमाल किया तभी जाकर सारे कैमरों का रुख उनकी ओर हुआ। और ये बात सच है कि कैमरों का रुख अगर उनकी ओर ना होता और सारे चैनल हड़ताल की ख़बर को हेडलाइन नहीं बनाते तो शायद कुछ नहीं होता और आईएचएफ के अड़ियल अधिकारी वर्ल्ड कप के लिये वैकल्पिक टीम की व्यवस्था भी करने लगते।

बहरहाल मुद्दा बेइज्ज़ती का है। कई देश में बैठे लोगों ने ये ख़बर देखी होगी कि भारत में राष्ट्रीय खेल के ये दुर्दिन हैं , कि खिलाड़ी पैसा ना मिलने पर हड़ताल पर जा रहे हैं। इससे तो अच्छा है कि इतिहास को रिफ्रेश कर दिया जाए और क्रिकेट को ही राष्ट्रीय खेल बना दिया जाए।