Tuesday, November 24, 2009

26/11 के बाद ढाक के तीन पात

26/11 को मुंबई पर हुआ आतंकी हमला कई मायनों में सबकी आंखें खोल देने वाला था। लेकिन असल में इस हमले के बाद प्रशासन की आंखें कितनी खुलीं हैं
मैं इस पर प्रकाश डालता हूं। मुंबई में समंदर के रास्ते दस आतंकी घुसे पूरे मुंबई में खुलेआम फायरिंग करते रहे। इसके बाद वो अपने ठिकानों पर पहुंचे और कई लोगों को
मारा और बंधक बनाया।मुंबई पुलिस के जवान आतंकियों के सामने पूरी तरह से घुटने टेकते नज़र आए।आतंकियों ने खुलेआम करीब 30 पुलिस कर्मियों को मार डाला
जबकि कवर लेने और छुपे होने बावजूद एनएसजी ने ऑपरेशन ब्लैक टोरोनैडो में 8 आतंकियों को मार गिराया। और इस ऑपरेशन में एनएसजी के महज़ दो जवान शहीद हुए,मेजर संदीप और सिपाही गजेंद्र ।इस तुलना में मुंबई पुलिस ने केवल एक आतंकी को मारा और इस हमले में मुंबई पुलिस
के सारे टॉप कॉप्स शहीद गए। एक चश्मदीद के मुताबिक आतंकियों ने महज 15 सेकंड में पुलिस की कार पर हमला किया और एटीएस चीफ हेमंत करकरे समेत अशोक
काम्टे और विजय सालस्कर को मार डाला कार से सबकि लाशें बाहर फेंककर कार लेकर भाग गए। दरसल इसकी एक सबसे बड़ी वजह थी राज्यों की पुलिस को दी जाने
वाली घटिया और पुराने ज़माने की ट्रेनिंग। किसी जवान के पास आतंकियों को रोकने के लिये डंडा था तो किसी के पास आतंकियों की ए.के 47 और एम.पी 5 के
मुकाबले के लिये थी .303 की अंग्रेजों के ज़माने की रायफलें। किसी जवान के पास करबाइन थी तो वो दो गोलियां चलाने के बाद ही जाम हो गई। कुल मिलाकर किसी
भी पुलिस वाले के पास ना ऐसी तकनीक थी ना ही ऐसी ट्रेनिंग जिससे की वो आतंकियों का सामना कर सकें।इस हमले में पुलिस कर्मियों और आरपीएफ के जवानों समेत करीब
137 लोग मारे गए और करीब 300 लोग घायल हो गए। मुंबई पर हमले के बाद कई तरह के सुरक्षा इंतज़ाम किये गए। लेकिन असलियत तो ये है कि अभी तक मुंबई और
दिल्ली को छोड़कर ज्यादातर राज्यों की पुलिस की हालत खस्ता है। झारखंड में नक्सलियों ने इंस्पेक्टर इंदुवार का सिर कलम कर दिया तो पूरे देश में सनसनी फैल गई। बहुत
कम लोगों को पता होगा कि इंस्पेटक्टर फ्रांसिस इंदुवार का ट्रांसफर होने के 6 महीने बाद उनकी मौत हो जाने तक उन्हें तन्ख्वाह नहीं मिली थी। हद तो तब हो गई जब
नक्सलियों से जूझ रहे बिहार, बंगाल और झारखंड पुलिस के जवानों को लुंगी पहने ड्यूटी करते देखा गया। कुछ राज्यों की पुलिस को ए.के 47 और इंसास दे दी गई
इसका मतलब ये नहीं की मौका पड़ने पर वो उसका इस्तेमाल कर लेंगे। हर वक्त कमाई के चक्कर में उलझे रहने के अलावा ट्रेनिंग लेना पुलिसकर्मियों के बस की बात नहीं।
ऑटोमेटिक हथियार हाथ में पकड़ा देने का ये मतलब नहीं होता कि वो आतंकियों के खिलाफ काम आएंगे। उन हथियारों को चलाने के लिये ज़बरदस्त ट्रेनिंग की ज़रूरत
पड़ती है, और सही मायनों में राज्यों की पुलिस को मिलने वाली ट्रेनिंग लगभग एनसीसी की ट्रेनिंग के बराबर होती है। कुल मिलाकर बात ये है कि अगर आप अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं तो आपको असलियत जानने के लिये ज्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है।
बस घर से निकलिये और चौराहे पर खड़े पुलिसवालों की हरकतें देखिये। आपको ख़तरे का अंदाज़ा खुद-ब-खुद हो जाएगा। लेकिन बात सिर्फ पुलिस को कोसने से खत्म नहीं होती। 26/11 के बाद हमने और आपने कसाब और पाकिस्तन को गालियां देने के अलावा और क्या किया है। ज़रा पीछे जाएं तो हकीकत सामने आएगी। दिल्ली पुलिस के दिलेरों ने बटला हाउस में आतंकियों का एनकाउंटर किया था। उस एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस के सुपरकॉप मोहनचंद शर्मा की मौत हो गई थी। लेकिन उस एनकाउंटर को फर्जी ठहराने की कितनी कोशिश की गई। ये किसी से छुपा नहीं है। अगर हम इसी तरह से हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो 26/11 जैसे हमले होते रहेंगे और बटला हाउस जैसे असली एनकाउंटरों पर सवाल उठते रहेंगे
जय हिन्द

Tuesday, November 10, 2009

कैसे हैं बाबू साहब ?

इस बार मैं अपनी नानी जी की तेरही पर बनारस गया। फिर दूसरे दिन वहां से मुगलसराय अपने घर गया। पापा की नई कार में घूमने की इच्छा थी। बहुत अच्छा लगा। एक दिन का वक्त मिला सिर्फ उसी रात बनारस से ट्रेन पकड़नी थी। मैं घर के छोटे मोटे काम निपटा रहा था कि तभी बाबा जी (दादा जी) ने कहा कि उन्हें डीआरएम ऑफिस जाना है पास बनवाने। मैंने कहा कि मैं उन्हें ले चलूंगा। हम दोपहर में डीआरएम ऑफिस पहुंच गए। पास बनाने वाले क्लर्क से मिलकर जैसे ही हम लौटने लगे तभी ऑफिस के अंदर से एक के बाद एक लोगों की आवाजें आने लगीं। ऐ बाबू साहेब- ऐ बाबू साहेब(पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में रसूख़दार राजपूतों को बाबू साहेब कहकर बुलाते हैं) । मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक आदमी बाबा जी की ओर इशारा करके रुकने को कह रहा था। काफी बुज़ुर्ग था। एक पैर भी नाकाम हो गया था उसका। बाबा जी से मिलकर वो रोने लगा। उसने कहा कि रिटायर होने के बाद उसकी ज़िंदगी नर्क बन गई है। ना उसके बेटे उसे पूछते हैं और ना ही उसकी बहुएं। बेचारा चार डंडों वाली बैसाखी से खुद चार किलोमीटर चलकर डीआरएम ऑफिस पहुंचा था। उसने बाबा जी से भी कुछ ऐसा ही सुनने की उम्मीद की थी। लेकिन मैंने उस वक्त बाबा जी की आखों में जो चमक देखी वो आज तक नहीं देखी थी। बाबा जी ने सगर्व मेरा परिचय उन बुज़ुर्ग जनाब से कराया और कहा "ई हमारा पोता है,दिल्ली में टीवी न्यूज़ चैनल में रिपोर्टर का काम करता है, छुट्टी में घर आया था तो हमको लेकर यहां आ गया, पास बनने को दे दिये हैं, शाम को यही आकर पास ले जाएगा "। उम्र के आखिरी पड़ाव में, करीब 78 साल की उम्र में बाबा जी के चेहरे पर इतनी खुशी देखकर मेरा दिल बाग बाग हो गया। ऐसा लग रहा था मानो जीवन सफल हो गया। पापा से मिले संस्कार ही थे जो इस दिन के लिये तरस रहे थे कि बाबा जी मेरी पीठ पर हाथ रखकर मेरा परिचय अपने दोस्तों से करवाएं और उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाए। उनसे मिलने के बाद बाबा जी से करीब 10 ऐसे ही बुज़ुर्ग मिले और सबने पूछा " कैसे हैं बाबू साहब "। इस पर बाबा जी का जवाब था। "हम तो एकदम ठीक हैं आप सुनायें"। बाबा जी के इस जवाब में कटाक्ष भी था और घमंड भी। लेकिन मेरे लिये तो ये अपनी ज़िंदगी के सबसे अच्छे अनुभवों में से एक था। बाबा जी के चेहरे पर खुशी की वो लकीर तब तक नज़र आई जब तक मैं घर से रवाना नहीं हो गया। इस तेज़ी से बदलती दुनिया में जो बचे खुचे संस्कार हमारे अंदर हैं उसमें अपने बड़ों की इज्ज़त करना सबसे बड़ा संस्कार है। उम्मीद है कि इस घटना को पढ़ने के बाद आपलोग उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंचे एक बुज़ुर्ग की मानसिकता से वाकिफ हो चुके होंगे।
अगर आपके पास भी ऐसा कोई अनुभव हो तो मुझसे ज़रूर बांटियेगा।
धन्यवाद

Sunday, October 25, 2009

बीजेपी का क्या होगा कालिया !

ये सवाल पूछने के लिये किसी कालिया को सामने खड़ा करने की ज़रूरत नहीं।क्योंकि बीजेपी की हालत को देखकर ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने वालों का क्या हश्र होता है। कभी शहरी वोटरों के दम पर सत्ता में आने वाली बीजेपी को आज शहर में ही सबसे कम वोट मिल रहे हैं। इसके पीछे कारण भी बीजेपी के ही पैदा किये हुए हैं। वरुण गांधी और बाल ठाकरे जैसे लोगों का साथ देकर बीजेपी ने शहरी वोटर को भड़का दिया। रही सही कसर पूरी कर दी बीजेपी के अड़ियल और बूढ़े हो चुके नेतृत्व ने।कभी संघ से दूर तो कभी संघ के पास, कभी मंदिर से दूर तो कभी मंदिर के पास, बिन पेंदे के लोटे की तरह बीजेपी लोट रही है। आम वोटर को समझ में नहीं आ रहा कि आखिर वो बीजेपी को वोट क्यों दे। बीजेपी मुख्यालय में जश्न देखे हुए तो अरसा हो गया है। बीजेपी के आला नेता इस बात को भूल गए की परिवर्तन ही जीवन का नियम। वक्त और परिस्थिती के अनुसार इंसान को बदलना ही पड़ता है। वोटर तो बदल गया लेकिन बीजेपी की सोच नहीं बदली। शहर के वोटर को अब मंदिर से मतलब नहीं रह गया। हिन्दुत्व के मुद्दे पर बीजेपी को कोई वोट भले ही दे दे लेकिन आज के वक्त में हिन्दुत्व के पीछे वोट देने वालों की तादात में भारी कमी आ गई है। सिर्फ पारंपरिक वोटरों ने ही बीजेपी की लाज बचा रखी है।यू.पी में वरुण ने मुस्लिम वोट को बीजेपी से दूर कर दिया तो महाराष्ट्र में शिवसेना ने उत्तर भारतीयों को बीजेपी से दूर रखा। विडम्बना तो ये है कि बीजेपी सिर्फ समाज के अलग अलग वर्गों से दूर होती जा रही है। दरसल एक वर्ग के पास आने की चाहत में बीजेपी के नेता इतना आगे निकल जाते हैं कि दूसरे वर्ग से दूर हो जाते हैं। इस बार शहर का पढ़ा लिखा वोटर बीजेपी से दूर हुआ है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के नतीजों से कम से कम ये तो साफ हो गया है। युवा नेताओं के हाथ में कमान देने से ना जाने क्यों आला नेता घबरा रहे हैं।संघ की विचारधारा के खिलाफ कोई भी टिप्पणी करने पर बड़े से बड़े नेता को बाहर जाना पड़ सकता है। नेतृत्व परिवर्तन को बेइज्जती समझा जा रहा है। कोई भी प्रमुख निर्णय लेने के लिये संघ मुख्यालय का रुख करना पड़ता है। ऐसे में बीजेपी का क्या होगा ये तो कालिया भी नहीं बता पाएगा।

Saturday, October 10, 2009

कहां गई राहुल की ट्रेन

अब कहां गई राहुल गांधी की ट्रेन में चढ़ने की चाहत। अब कहां है इकॉनोमी क्लास में चढ़ने वाले नेता।चुनाव के बिज़ी शेड्यूल में ये वाहियात बातें करके मैं किसी को डिस्टर्ब नहीं करना चाहता।वैसे भी राहुल गांधी ने आज तक किसी पत्रकार के आग उगलते सवालों का सामना करने की हिम्मत तो दिखाई नहीं है। फिर मेरे जैसा अदना सा पत्रकार कैसे ये हिमाकत कर सकता है कि राहुल बाबा से ये सवाल पूछे। कल तक तो राहुल बाबा मुंबई में थे। और आज अचानक चुनावी रैली करने के लिये पहुंच गए हरियाणा। एक बात बताऊं राहुल बाबा मैं भी ट्रेन से सफर करता हूं, कोई भी ट्रेन आपको 12 घंटों में मुंबई से दिल्ली नहीं पहुंचा सकती। आए तो आप प्लेन से ही होंगे। क्लास के बारे में कोई आइडिया नहीं है इसलिये टिप्पणी करना बेमानी है। लेकिन सवाल ये है कि एक बार ट्रेन से सफर करके आपने सारी मीडिया को बुला लिया। अब कहां है आपकी सादगी। क्यों नहीं आपने मुंबई से दिल्ली का टिकट ट्रेन का करवा लिया। अरे भई मेरे पास जवाब भी है क्योंकि मुझे पता है कि इसका जवाब कोई नहीं देगा। असल में चुनाव के वक्त ऐसी वाहियात बातों के लिये किसी के पास वक्त नहीं होता। एक बार ट्रेन में बैठकर मीडिया का इस्तेमाल कर लिया ना अब करो जितना मर्जी हवाई सफर। कौन देख रहा है। ना हम ना आप।

Friday, October 9, 2009

हम ही काटेंगे इंडिया की नाक !

दिल्ली है दिलवालों की..। इसीलिए कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 का बीड़ा उठाने के बाद. इसी दिल्ली की नाक कटवाने का बंदोबस्त कर लिया गया है..। कॉमनवेल्थ में पूरी दुनिया से खिलाड़ी आएंगे और पूरी दुनिया कॉमनवेल्थ गेम्स के बहाने दिल्ली को भी देखेगी..। लेकिन उन्हें देखने को मिलेगा क्या..।
जहां लिखा है कि कूड़ा डालना मना है, वहीं सबसे ज्यादा कूड़ा .पता नहीं.ये सूचना पढ़कर लोग उल्टा मतलब निकाल लेते हैं शायद।
जिस दीवार पर लिखा मिल जाए कि यहां पेशाब करना मना है, उसे तो लोग सुलभ शौचालय की तरह इस्तेमाल करते हैं..। आस पास के लोग और राहगीर भी खासतौर पर उसी दीवार को अपना निशाना बनाते हैं..
दिल्ली वालों को साफ सुथरी स्याह सड़कें पसंद नहीं आतीं..
खासतौर से उन लोगों को जो पान और गुटखा खाने के शौकीन हैं. और उनके शौक का शिकार बनती है सड़कों की ख़ूबसूरती..दिल्ली की किसी भी सड़क और दीवारों पर हर जगह लाल रंग के पीक के निशान देखने को मिल जाते हैं.

पैदल चलने वालों पर गलत तरीके से सड़क पार करने के लिये चालान लागू किया गया तो खूब हंगामा मचा, लेकिन तमाम चालान और नियम कायदों के बावजूद दिल्ली में पैदल चलने वाले लोगों की चाल पर कोई असर नहीं पड़ा। उनकी चाल ज्यों की त्यों मदमस्त है।
सरकार ने करोड़ो की लागत और लाखों के घोटालों के बाद सबवे और फुट ओवरब्रिज बनवा तो दिये लेकिन इनका इस्तेमाल करने की ज़हमत कौन उठाए..। सड़क पार करने का इतना बोरिंग तरीका दिल्ली वालों को बिल्कुल पसंद नहीं। अरे भई, जान पर खेलकर सड़क पार करने का मज़ा ही कुछ और है और उसमें ट्रैफिक तेज़ी से भाग रहा हो तो मज़ा दुगुना हो जाता है।
तेज़ रफ्तार ट्रैफिक से राहगीरों को बचाने के लिये उन्हें बेतरतीब तरीके से सड़क पार करने से रोकना था.इसलिये सरकार ने सड़क के डिवाईडर पर बड़ी बड़ी रेलिंग्स तो लगा दीं। लेकिन दिल्ली वालों के लिये इन बड़ी-बड़ी रेलिंग्स को पार करना बहुत छोटी बात है.मानो हर्डल रेस की प्रैक्टिस कर रहे हों.और जिनकी लम्बाई थोड़ी कम है.वो तो इन रेलिंग्स के बीच से ही निकल जाते हैं।
बहरहाल, ये तो थी पैदल चलने वालों की बात..। कार में सवार दिल्ली वाले तो पैदल चलने वालों से भी दो कदम आगे हैं..। ट्रैफिक लाइट रेड हो जाने पर रुकना तो इनकी फितरत में ही नहीं है..। वन वे में उल्टी तरफ से गाड़ी चलाने में जो रोमांच इन्हें मिलता है उसका तो कोई जवाब ही नहीं..।
ज़ेब्रा क्रासिंग बनाई तो गई थी पैदल यात्रियों के सड़क पार करने के लिये, लेकिन सिग्नल रेड होने के बाद कार और बाइक सवार ठीक ज़ेब्रा क्रासिंग पर गाड़ी खड़ी करने को अपनी शान समझते हैं..। शायद ज़ेब्रा क्रासिंग पर खड़े होने का अहसास कुछ और होता हो....यानी ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि कॉमनवेल्थ में विदेशी हमारे यहां आएंगे और हमारी मस्तानी चाल देखकर हैरान रह जाएंगे..।
लेकिन दिल्ली वाले दिल के इतने अमीर हैं कि उन्हें इन छोटी मोटी बातों से कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ता..। कॉमनवेल्थ खेलों में देश की नाक कटे या रहे.. हम तो भई जैसे हैं.वैसे ही रहेंगे।

Saturday, September 19, 2009

शहादत का मज़ाक या मज़ाक की शहादत


13 सितंबर 20 08 को दिल्ली में चार जगहों पर धमाके हुए 27 मरे और 100 से ज्यादा घायल हो गए। हमेशा की तरह दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल की टीम दिवंगत इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की अगुआई में आतंकियों की तलाश में निकली। 19 सितंबर 2008 को लोधी रोड थाने के पीछे स्थित सेल के ऑफिस से मोहनचंद अपनी टीम के साथ दोपहर करीब डेढ़ बजे निकले। ऑफिस से निकलते वक्त उन्हें एक रिपोर्टर बाहर खड़ा मिला। मोहनचंद ने रिपोर्टर को कहा जल्द ही खुशखबरी दुंगा और फिर दो छोटी कारों में सवार होकर उनकी टीम निकल पड़ी। शाम के करीब साढ़े छः बजे टीवी चैनल्स पर ब्रेकिंग चलनी शुरू हो गई साल भर की सबसे बड़ी खबर की "दिल्ली के बाटला हाउस में पुलिस के साथ संदिग्ध आतंकियों की मुठभेड़ जारी"। ब्रेकिंग की दूसरी लाइन पढ़कर सारे क्राइम रिपोर्टर्स की रूह कांप गई। ब्रेकिंग की दूसरी लाइन थी "इंस्पेक्टर मोहचंद शर्मा को गोली लगी"। इसके बाद सारे न्यूज़ चैनल्स बाटसा हउस पहुंच गए। मैं भी वहां पहुंचा लेकिन वहां का माहौल देखकर हक्का बक्का रह गया। बाटला हाउस इलाके के आस पास रहने वाला हर एक शख्स इनकाउंटर को फर्जी बता रहा था। हर शख्स मीडिया पर गुस्सा था। कई रिपोर्टर्स से तो मारपीट भी की गई। खैर किसी तरह वहां से निकलकर हम होली फैमिली अस्पताल पहुंचे जहां मोहन चंद भर्ती थे। पता चला कि उन्हें तीन से चार गोलियां लगी हैं। इसके अलावा एक कांस्टेबल को भी हाथ पर गोली लगी थी। रात के करीब दस बजे मोहन चंद की टीम के लोग रोते हुए अस्पताल से बाहर आते हुए दिखे। हम सबकी आखों में आंसू आ गए लेकिन फिर भी हिम्मत करके हमने खबर ब्रेक करवाई "मोहन चंद शर्मा शहीद हो गए"। करीब 55 आतंकियों का एनकाउंटर करने वाला एक ईमानदार और हर किसी का चहेता हमेशा के लिये चला गया था। लेकिन जामिया नगर में रहने वाले लोगों की टिप्पणियां सुनकर खून खौल सा जा रहा था। सारे न्यूज़ चैनल्स ने पुलिस का पूरा साथ दिया , कुछ अखबारों ने इस एनकाउंटर को फर्जी करार देने का पूरा प्रयास किया था। उसके बाद भारतीय राजनीति के सबसे शातिर नेता अमर सिंह बाटला हाउस पहुंचे और सेंक दी राजनैतिक रोटियां। जामिया नगर के लोगों की गलतफहमी को और भड़का दिया। संसद में भी कुछ नेताओं ने अखबार उठा कर हवा में लहराए और एनकाउंटर की जांच के आदेश दे दिये गए। मानवाधिकार आयोग ने करीब नौ महीने के बाद स्पेशल सेल की टीम को क्लीन चिट दे दी। लेकिन इस घटना के बाद कोई भी पुलिस वाला गोली चलाने से पहले दस बार सोचता है और ग्यारहवीं बार पिस्तौल हॉल्स्टर में वापस रख लेता है कोई भी अपनी शहादत का मज़ाक नहीं उड़ने देना चाहता। अपने आप को कल तक बड़ा ही बुद्धीजीवी और सेक्यूलर मानने वाले जामिया नगर के निवासी पत्रकार मारे गए आतंकियों को आखिरी सलामी (मिट्टी देने ) भी पहुंच गए। अजीब सा तनाव पैदा हो गया दो कौमों के बीच। यहां तक की मेरी मुंह बोली बहन (जो कि एक मुस्लिम है), इस एनकाउंटर को फर्जी बता रही है। हालांकि ज्यादातर लोगों का इस एनकाउंटर और मारे गए आतंकियों से कोई सरोकार नहीं था, लेकिन पूर्वाग्रह से ग्रस्त सभी लोग इसे एक ज़ुबान से फर्जी एनकाउंटर करार दे रहे थे। कोई इस बात को लेकर अड़ा था कि आतंकियों के पास अगर ए.के 47 राइफल थी तो उन्होंने उसका इस्तेमाल क्यों नहीं किया।कुछ के पास ये दलील थी की उन्होंने कुछ पुलिस वालों को एल 18 की छत पर खड़े होकर हवाई फायरिंग करते हुए देखा। इसके अलावा कई दलीलें ऐसी थी जो थीं तो बहुत ही टुच्ची लेकिन उनका जवाब कोई सुनना नहीं चाह रहा था। आज शहीद मोहनचंद शर्मा के परिवार के ऊपर जो गुज़र रही है उसे ये लोग समझना नहीं चाहते। या शायद समझकर भी नहीं समझते। एक एनकाउंटर ने भारत को हिला कर रख दिया। एनकाउंटर दिल्ली में हुआ और बनारस में बैठे लोग इसे फर्जी करार देते हुए ये कह रहे थे कि पुलिस वाले को तो पुलिस वाले ने ही गोली मार दी ताकि एनकाउंटर को सच साबित कर सकें लेकिन मैं तो ये कहुंगा कि ऐसे लोगों ने देशभक्ति का ही एनकाउंटर कर दिया ताकि एनकाउंटर को झूठा साबित कर सकें। हालांकि मैं जानता हूं कि मेरा ये छोटा से लेख कुछ नहीं बदल सकता , लेकिन फिर भी एक साल बाद ही सही मैं आपको कुछ ऐसे तथ्य बताता हूं जो एनकाउंटर को फर्जी या असली साबित करते हैं-

1-पहला और सर्वव्यापी सच जिसे लोग जान कर भी नहीं समझते कि फर्जी एनकाउंटर कभी भी रिहायशी इलाकों में नहीं होते।क्योंकि बंदूक से निकली गोली दीवारों से टकराकर किसी को भी लग सकती है।

2- ए.के 47 कोई तभी इस्तेमाल कर सकता है जब वो उसके हाथ में हो यानि की हमले के लिये तैयार बैठा हो। जल्दबाजी में जो हाथ आया उसे ही अपने बचाव में चला देते हैं। कोई भी आतंकी पुलिस को देखने के बाद ए.के 47 ढूंढने नहीं जाता।

3-पुलिस हवाई फायरिंग आतंकियों को डराने के लिये करती है ताकि कोई भी आतंकी गोली चलने की आवाज सुनकर अपनी पोज़िशन चेंज ना कर सके।

4- किसी भी फर्जी एनकाउंटर में पुलिस वालों को गोली नहीं लगती। और अगर गलती से लग भी गई तो इतनी नहीं लगती की उसकी मौत ही हो जाए।

5- एनकाउंटर के इरादे से निकली किसी भी पुलिस टीम के पास बुलेट प्रूफ जैकेट और तमाम तरह के आधुनिक असलहे होते हैं। लेकिन स्वर्गीय शर्मा जी की टीम सिर्फ आतंकियों की रेकी यानि की पहचान के लिये निकली थी।

6- स्पेशल सेल के डीसीपी इतने बेवकूफ नहीं है कि हाथों में पिस्तौल लेकर एल-17 के सामने फोटो खिंचवा ले।

7- जो आतंकी इसमें मारा गया था उसका भाई एक अंग्रेजी न्यूज़ चैनल में कैंरामैन है।और मारा गया आतंकी 4 सालों से दिल्ली में ही अपना घर छोड़कर दूसरे फ्लैट में रह रहा था।

बहरहाल दलीलें तो बहुत हैं, मेरे पास भी और आपके पास भी, लेकिन पिछले एक साल से उन्हें मानने के लिये कोई तैयार नहीं। ना आप ना हम।लेकिन अगर हो सके तो शहादत को सलाम करना सीख लीजिये कोई आपसे देश के लिये आपकी जान नहीं मांग रहा।

जय हिंद

Saturday, September 12, 2009

हाथी बनेगा नया राष्ट्रीय पशु


एक बार मैं नॉर्थ ब्लॉक पर किसी राजनैतिक हलचल को कवर करने के लिये खड़ा था। तभी हममें से किसी एक ने कहा कि यार कसम से मायावती को ही प्रधानमंत्री बना देना चाहिये। सारे भारत को इधर का उधर कर के रख देगी। यूपी में तो करोड़ो के पार्क बनवा कर उसमें हाथी लगवाये जा रहे हैं मानो हाथी बसपा का चुनाव चिन्ह ना होकर राष्ट्रीय पशु हो। कमाल तो ये है कि हाथी को अब तक यू पी का राष्ट्रीय पशु नहीं घोषित किया गया। लेकिन एक बात तो तय है अगर गलती से अगले चुनाव में माया को प्रधानमंत्री की कुर्सी मिल गई तो राष्ट्रीय पशु तो हाथी ही होगा। जी हां इसके अलावा देश भर में कई व्यापक बदलाव होंगे। सबसे पहले तो प्रधानमंत्री कार्यालय यानि की पीएमओ का रंग बदलकर नीला कर दिया जाएगा। राष्ट्रपति भवन का नाम अंबेडकर भवन रख दिया जाएगा। इतना ही नहीं नॉर्थ ब्लॉक का नाम माननीय कांशीराम भवन और साउथ ब्लॉक का नाम भीम भवन रख दिया जाएगा। इंडिया गेट के अन्दर से दाखिल होती हुई एक हाथी की मूर्ति बनाई जाएगी। क्योंकि अगर माया प्रधानमंत्री बनी तो ये तो होना ही है। हां हर शहर में एक कॉलोनी का नाम अंबेडकर कॉलोनी रखना अनिवार्य होगा। अगर माया को लगा कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट खूबसूरत नहीं लग रहे तो उनका भी रंग बदल कर नीला कर दिया जाएगा। और अगर चिरकाल तक माया प्रधानमंत्री बनी रहीं तो तिरंगे में भी एक एक्सट्रा गहरा नीला कलर जोड़ दिया जायेगा। यानि की तब तिरंगे को चौरंगा कहा जाएगा। और इन सभी पुण्य कार्यों को सम्पन्न कराने के लिये कैबिनेट में एक एक्सट्रा मंत्री पद बनाया जाएगा। हर सरकारी दफ्तर के आगे माया की एक मूर्ति ज़रूर रखी होगी जिसकी देखभाल में ज़रा सी चूक हो जाने पर संबंधित विभाग के अधिकारी को फौरन संस्पेंड कर दिया जाएगा। हो सकता है मुगलों की बनाई इमारतों जैसे कुतुबमीनार , लालकिला, ताज़महल से माया को जलन होने लगे और इन धरोहरों के सामने इनसे भी बड़ी और भव्य भीममिनार, मायाकिला और अंबेडकर महल बना दिया जाए। देश भर सारे गुंबद वाले सरकारी भवनों के गुंबद का रंग तत्काल प्रभाव से नीला कर दिया जाएगा। और हर नोट पर एक तरफ गांधी जी और दूसरी तरफ हाथी का निशान बना होगा।

आपका क्या ख़याल है ज़रूर लिखियेगा।जय हिन्द।

Sunday, August 30, 2009

वोटे ना देहबा त लईटिया कहां से आई ?

वोट फॉर नोट से तो आप सब वाकिफ होंगे। किस तरह सरकार बनाने के लिये सांसदों और विधायकों को पैसे दिये जाते हैं। मैं जो बता रहा हूं उसे भी सरकार बनाने के लिये ही इस्तेमाल किया जाता है। हमारा मकान बनारस से करीब 10 किलोमीटर दूर मुगलसराय में है। मुगलसराय पहले बनारस जिले का हिस्सा था लेकिन मायावती जी ने उसे काटकर चंदौली ज़िले में जोड़ दिया। पूरे चंदौली जिले में मुगलसराय जितना बड़ा शहर कोई नहीं है। यहां तक की मुगलसराय खुद चंदौली से बड़ा और विकसित है। साथ ही मुगलसराय एशिया का सबसे बड़ा रेलवे यार्ड है। बहरहाल इतना सबकुछ होने के बाद भी सुबह सुबह मेरी मां को उठकर सबसे पहले एक ही काम करना पड़ता है, और वो है पानी का मोटर चलाना। क्योंकि अगर मोटर नहीं चलाया तो ना जाने अगली बार बिजली कब आएगी। कभी कभी बिजली दोपहर में आकर आंखमिचौली खेल जाती है तो कभी शाम में। हां रात के बारह बजे से सुबह के 6 बजे तक बिजली रहती है। यानि 24 घंटे में मात्र 6 घंटे। इन्वर्टर की बैटरी भी हर दिन बोल जाती है।और कभी गलती से बिजली चोरों की वजह से कोई ट्रांस्फॉर्मर फूंक गया तो गए तीन चार दिन,एक बार तो हफ्ते भर तक बिजली नहीं थी ।ये सब पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि पूर्वी यू.पी का कितना बुरा हाल है। लेकिन ज़रा ठहरिये, चंदौली जिले में ही मेरी बूआ का गांव है "त्रिपाठ"। घर से चंद किलोमीचर होने की वजह से हम गांव का मज़ा लेने अक्सर वहां जाया करते थे। फूफा जी के छोटे भाई वहां के ग्राम प्रधान हुआ करते थे। लेकिन गांव पहुंचकर तो हमें शहर का मजा मिलता था । हम ये देखकर अचंभित रह गए कि गांव में एक सेकेंड के लिये भी बिजली नहीं जाती। साफ सुथरी चिकनी सड़कें खेतों के बीच से निकलकर आ रही गंदगी का कोई नामोनिशान नहीं चारों ओर पक्की सड़क औऱ नालियां बन चुकी हैं।ये सब देखकर हमने अपने ग्राम प्रधान फूफा जी के भाई से पूछा कि ये कैसे हो रहा है। प्रधान जी का जवाब भी कमाल था...दै मर्दे, जब वोटे ना देबा त लाइटिया कहां से आई...अर्थात् जब वोट ही नहीं दीजियेगा तो बिजली कहां से आएगी। ये हमारे लिये तो एक मज़ाक था लेकिन असल में ये यू.पी की गंदी राजनीति का एक नमूना भर था। दरसल किसी भी पार्टी को मुगलसराय से ज्यादा वोट गांवों से मिलते हैं। चाहे समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी। हां बीजेपी को ज्यादा वोट शहर से मिलते हैं और कांग्रेस को भी। वोट पाने के लिये नेता इस हद तक गिर गए हैं कि एक विकासशील शहर (जिसे कि मिनी महानगर कहा जाता है) को बिजली ना देकर गांवों में बिजली दे रहे हैं। ये सबकुछ सोच समझकर किया जा रहा है। शहरी वोटर कितना भी ज्यादा वोट कर ले कभी 35 प्रतिशत का आंकड़ा पार नहीं होता, वहीं गांवों में ये आंकड़ा 60 प्रतिशत के पार ही रहता तो भइया बिजली की हालत तो मुगलसराय में ऐसी ही रहनी है। अगर आपको शहर का मज़ा लेना है तो चलिये गांवों की ओर। यू.पी के महान नेताओं और महानतम् राजनीति को साष्टांग दंडवत।
जय हिन्द

Saturday, August 15, 2009

62 साल का बूढ़ा इंडिया

ये इंडिया भी अजीब है
आज इसका 62 वां जन्मदिन है
फिर भी देखने से बिल्कुल बच्चे जैसा लगता है
कई चोटें दीं लोगों ने इसको लेकिन किसी को पलटकर कभी नहीं मारता है।


ये इंडिया भी अजीब है
कोई खादी पहने मंत्री कभी तिरंगे को उल्टा टांग देता है
कोई मदरसा कभी वंदे मातरम् गाने पर फतवा जारी कर देता है
आधे से ज्यादा लोगों को वंदे मातरम् और जन गन मन में फर्क नहीं पता है।

ये इंडिया भी अजीब है
कभी सालों पहले हुए संसद पर हमले के आरोपी की फांसी की सजा टाल दी जाती है
कभी दस आतंकी सरहद पार से आते हैं और सीना छलनी कर जाते हैं
और देश चलाने वाले नेता ये कह देते हैं कि बड़े बड़े शहरों में छोटी मोटी वारदातें होती रहती हैं।

ये इंडिया भी अजीब है
कभी बिल्किस की चीख किसी को सुनाई नहीं देती
तो कभी गोधरा में खड़ी ट्रेन में खुद से ही आग लग जाती और 59 मर जाते हैं
कभी "नोबडी किल्ड जेसिका" अख़बारों की हेडलाईन बन जाती है।

ये इंडिया भी अजीब है
दिल्ली में मेट्रो बन जाती है तो हम बड़े खुश हो जाते हैं
कभी लगता है कि देश वाकई तरक्की कर रहा है
लेकिन एक विदेशी अपने ही देश में आकर स्लडॉग मिलियनेयर बनाकर हमें आईना दिखा जाता है।
वाकई ये इंडिया भी अजीब है।

जय हिन्द

Friday, July 31, 2009

लव आज कल

भारत, एक ऐसी जगह जहां लोग तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं.पीढ़ियों के बीच का अंतराल ख़त्म होता जा रहा है.हर तरफ मॉर्डनाइज़ेशन की दौड़ है.हर शहर में आपको ये दौड़ देखने को मिल जाएगी.लेकिन इस आधुनिकता के पीछे छुपी है एक ऐसी हकीकत जिसे हम स्वीकार करने से कतराते हैं.ये हकीकत है हमारी मध्ययुगीन सोच की.जहां आज महनगरों में लोग लिव-इन में रह रहे हैं वहीं कई इलाकों में लव मैरिज करने वालों को गोली मारी जा रही है.कई लोगों को तो फांसी पर लटका दिया गया.एक प्राइवेट न्यूज़ चैनल के सर्वे ने खुलासा किया कि भारत में हर साल आतंकवाद से ज्यादा लोग इश्क के लिये शहीद हो जाते हैं.जी हां ये तथ्य चौकाने वाले थे.लेकिन दुर्भाग्य ये सच थे.दरसल भारत मध्ययुगीनता और आधुनिकता के ऐसे घातक दौर से गुज़र रहा है जहां एक ही तरह का बर्ताव किसी जगह पर मान्य है तो कहीं पर उसी बर्ताव के लिये लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है.हाल में ही मेरे चैनल के स्टूडियो में हरियाणा की एक लड़की आई थी, पता चला कि उसने प्रेम विवाह किया था,लेकिन उसके शौहर को गांव की भीड़ ने मार डाला क्योंकि उन दोनों ने एक ही गोत्र में शादी की थी.अब इसे एक विड़बना ही कहा जाए कि हम अपने पड़ोस के एक मुल्क अफगानिस्तान को इतना कोसते हैं कि किसी भी अमानवीय हरकत को तालिबानी हरकत कहते हैं लेकिन हमने कभी अपने गिरेहबान में झांकना मुनासिब नहीं समझा.अगर वो तालिबान हैं तो फिर यहां क्या हो रहा है.अपने लिये जीवनसाथी चुनना हर इंसान का मौलिक अधिकार होता है.दूसरे मुल्क या परंपरा पर उंगली उठाना बहुत ही आसान होता है.और तो और हमारे कथित धर्मात्मा इसे व्यभिचार तक का दर्जा दे देते हैं.लेकिन वाकई यहां कुछ नहीं बदल रहा.जब पुलिस के सामने ही एक नवविवाहिता ने अपने पति का कत्ल होते हुए देखा तो कानून को अंधा कहने में कोई बुराई नहीं है.कथा का अंत इस बात से कहना चाहुंगा बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था,हर शाख पे उल्लू बैठे हैं अंजाम ए गुलिस्तां क्या होगा.

Tuesday, July 21, 2009

तलवा चाटू विदेश नीति

दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक टुच्चे से अमेरिकी एयरलाइंस के सुरक्षा अधिकारियों ने भारत के पूर्व प्रथम पुरुष(राष्ट्रपति) और मिसाइल मैन ए.पी.जे अब्दुल कलाम की तलाशी ले ली और उनके जूते भी उतरवा दिये।बदले में संबंधित विभाग के मंत्री ने विपक्ष के लगातार हो रहे हमलों से बचने के लिये उस एयरलाइंस को नोटिस भी भेज दिया। लेकिन एयर लाइंस की हिम्मत तो देखिये, तपाक से जवाब आया कि अमेरिका के कानून में किसी भी व्यक्ति को बोर्डिंग से पहले इस तरह की छूट नहीं दी जाती है, और उन्होंने उसी अनुसार काम किया। कमाल तो ये है कि ये पहली बार नहीं हो रहा। इससे पहले की घटनाएं आपको याद दिला दूं,
जॉर्ज फर्नाडिज़ जो कि तत्कालीन रक्षा मंत्री थे, अमेरिका में सुरक्षा जांच के नाम पर तो उनके कपड़े ही उतरवा लिये।
यही नहीं सोमनाथ चैटर्जी (पूर्व लोकसभा स्पीकर) के साथ एक ऑस्ट्रेलियन एयर लाइंस ने भी ऐसा ही किया,
एक बार जब बुश भारत के दौरे पर थे तो उसके पर्सनल गार्ड्स ने महात्मा गांधी की समाधि की खोजी कुत्तों से तलाशी ली।
लेकिन लानत है हमारे नेताओं पर ऐसी घटना के बाद भी कोई ऐसी कारवाई नहीं जिससे एक आम भारतीय के दिल में लगी आग बुझा सकें। आखिर ये कैसी फॉरेन पॉलिसी है जिसमें सिर्फ शक्तिशाली देशों के तलवे चाटने का काम होता है। देश का स्वाभिमान कहां गया, शायद वाजपेयी जी के साथ ही बूढ़ा हो गया। जब भी इस तरह की कोई घटना होती है संसद में हंगामा होना तो तय है। विपक्ष के हाथ में मुद्दा मिलता है तो हंगामा होना लाज़िमी है। विपक्ष में बैठी हर पार्टी सबसे बड़ी देश प्रेमी पार्टी नज़र आती है।लेकिन जब कभी दूसरों को जवाब देने का मौका आता है तो सब के सब इसी बिना रीढ़ की फॉरेन पॉलिसी से बंध जाते हैं।
कारगिल में पाकिस्तानी सेना ने आतंकियों के साथ मिलकर घुसपैठ की,तो भारतीय सेना ने तमाम बलिदानों के बाद ऊंचे शिखरों पर विजय प्राप्त कर ली। कारगिल में जब हमारे जवानों ने अपनी चोटियों पर कब्ज़ा कर लिया तब घुसपैठिये भागने लगे। लेकिन सेना ने अपनी आंखों के सामने से उन्हें जाने दिया क्योंकि उनपर गोली चलाने के लिये सरकार ने आदेश नहीं दिये थे। कमाल है ये नेता आखिर किस मिट्टी के बने हैं। आखिर ये कैसी बिना रीढ़ की फॉरेन पॉलिसी है?

Saturday, June 20, 2009

बॉस की मर्सीडीज़


लाल सलाम करके लालगढ़ को लाल रंग में रंग दिया गया।फोर्स भेजी गई थी लाल झंडे वाले दंगाइयों से निपटने के लिये।लेकिन फोर्स के हत्थे चढ़े आम लोग।इन आम लोगों में से कई माओवादियों के साथ नहीं थे।लेकिन इतनी बुरी तरह से पिटने के बाद ये लोग यही सोच रहे होंगे कि इससे अच्छा तो उनके साथ ही होते। बेशक अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी चाहिये, लेकिन बंदूक नहीं। तमाम तर्क ऐसे हैं जो वाम विचारधारा के खिलाफ हैं। इसी बात को लेकर मेरे और मेरे एक कॉमरेड दोस्त के बीच बहस शुरू हो गई। मैंने उससे पूछा कि वो तो लाल सलाम इसलिये करते हैं क्योंकि उनके पास वैसी समस्याएं हैं या फिर वो ऐसे लोगों के प्रभाव में हैं जो उन्हें ये करने के लिये उकसाते हैं। तुम क्यों उनका समर्थन करते हो। उसका जवाब सुनकर मेरे पास अगला सवाल करने की हिम्मत नहीं हुई।उसने कहा कि मैं जहां काम करता हूं वहां मुझे दो साल से सिर्फ दस हजार रुपए मिल रहे हैं। तन्ख्वाह आने के इंतेज़ार में कभी महीने के बीस दिन गुज़र जाते हैं को कभी उससे भी ज्यादा। ये समस्या उसके ऑफिस के सभी कर्मचारियों के साथ थी। सिवाय उसके बॉस के। वो उस परिस्थिती में भी अपनी मर्सिडीज़ से घूमता है। और फाइव स्टार होटलों में मीटिंग करता है। उसने कहा कि जब मकान मालिक को देने के लिये पैसे नहीं होते हैं तो उसे बॉस की मर्सिडीज़ की याद आती है। अगर उसके चार पहिये निकाल कर बेच दिये जाएं तो कंपनी के लिये पसीना बहा रहे दस लोगों की तन्ख्वाह का इंतज़ाम हो जाएगा। मार्क्सवादी या माओवादियों को गलत ठहराना मेरे लिये बहुत ही आसान था।लेकिन अपने मित्र के इस सवाल का जवाब देना उतना ही मुश्किल।क्योंकि शायद ये कोफ्त मेरे अंदर भी है, शायद आपके अंदर भी होगा।लालगढ़ में हंगामा करने वालों और मेरे कॉमरेड मित्र में फर्क बस इतना नहीं कि वो माओवादी हैं और मेरा मित्र मार्क्सवादी, असल फर्क तो ये है कि वो अपने गुज़र बसर के लिये किसी की जी हुजूरी करने के लिये मजबूर नहीं है ,लेकिन मैं और मेरा कॉमरेड दोस्त इस बात से ताल्लुक नहीं रखते। शायद आप भी नहीं।

Friday, June 12, 2009

नई पीढ़ी..एकदम कूल


मेरे पिताजी मुझे नई पीढ़ी का कहते हैं।उनकी ऐसी बहुत सारी उम्मीदें हैं जिनपर मैं खरा नहीं उतरता।जी हां बिल्कुल मैं जात पात और धर्म में विश्वास नहीं रखता।लेकिन मेरे अंदर अपने देश के लिये आज भी उतना ही सम्मान है जितना मेरे पिताजी को है।मैं कई मायनों में उनसे अलग हूं लेकिन आत्मसम्मान मुझे उनसे ही मिला है। और जब मैं उन नौजवानों को देखता हूं जो ऑस्ट्रेलिया में पिट रहे होते हैं तो मैं सोचता हूं कि ये हैं तो मेरी पीढ़ी के लेकिन इनका आत्मसम्मान कहां गया। ये कोई पहला देश नहीं है जहां भारतीयों पर हमले हो रहे हैं। इसके बचाव में लोग ये कह देते हैं कि लोग भारतीयों की सफलता से चिढ़ते हैं इसलिये वो खीज में हमपर हमला करते हैं। ये मेरी ही पीढ़ी के वो कूल लोग होते हैं जिन्हे बहुत ही छोटी सी दाढ़ी या फिर करंट लगे हुए बाल रखने का शौक है। ये वही लोग हैं जिन्हें अंग्रेजी का ए टू जेड आता है लेकिन हिंदी के क से ज्ञ तक का ज्ञान उन्हें नहीं है।अगर इनसे राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के बीच अंतर पूछ लिया जाए तो इन्हें पता ही नहीं।और कहते हैं कि हम बहुत कूल हैं। अगर वो भारतीयों से चिढ़ते हैं तो पहले तुम्हें भारतीय बनकर दिखाना होगा। मैं चाहता तो मैं भी बी फार्मा या फिर ऐसा ही कोई कोर्स करके बड़े आराम से कनाडा चला जाता। लेकिन यहां रहकर कम पैसे में एक सम्मानजनक नौकरी करना मैने बेहतर समझा। माना हिंदुस्तान में नौकरियां कम हैं लेकिन इतनी कम भी नहीं कि हम विदेशियों के जूते खाकर और फिर उन्हीं की नौकरी करें।लेकिन इन सवालों का उनके पास जवाब है कि वो बहुत कूल हैं उन्हें इन सब चीज़ों से कोई फर्क नहीं पड़ता।कमाल है ये लोग आखिर कितने कूल हैं। मैं भी बहुत कूल हूं लेकिन इनके जितना नहीं कि कोई देश को गाली देकर चला जाए और मैं चुपचाप सह लूं। कूल होना बहुत अच्छी बात है लेकिन इतना भी नहीं कि खून ही ठंढा पड़ जाए। विदेश जाने में कोई भी बुराई नहीं लेकिन अपना खेत बेचकर विदेशियों के खेत में मज़दूरी करना कहां तक सही है। मैं अक्सर ऐसे लोगों से दो चार होता हूं जो फर्जी तरीके से विदेश जाने के लिये अपना सब कुछ बेच देते हैं।उसके बाद या तो उन्हें पुलिस पकड़ लेती है या सड़क पर आ जाते हैं। लेकिन फिर भी विदेश जाने को आतुर रहते हैं। गोरों के दो सौ साल क्या कुछ कम थे की आज भी उनकी गालियां सुनते हो। इतना क्या कूल होना है यारों की तुम्हें हिंदुस्तान से कोई मतलब ही ना रह जाए।हम आज भी यहीं जीते हैं और बहुत खुशी से जीते हैं।सिर उठाकर जीते हैं। ग्लोबलाइज़ेशन की दुहाई देकर लोग विदेश चले जाते हैं। हमारे देश में कब ऐसा ग्लोबलाइज़ेशन आएगा कि गोरे यहां नौकरी करने आएंगे।ग्लोबलाइज़ेशन लाने वाले तो इतने कूल हैं कि उन्हें इनसे कोई मतलब ही नहीं। उनके लिये कूल होने का मतलब है मतलबी होना। सिर्फ पैसा और एशो आराम सोचना।अब भी जिसका खून ना खौला खून नहीं वो पानी है।देश के जो काम ना आए वो बेकार जवानी है। लेकिन इनका खून खौलेगा कैसे क्योंकि ये लोग तो बहुत कूल हैं ना....
जय हिन्द

Friday, May 29, 2009

अलबलाइटिस

अलबलाइटिस एक ऐसे रोग का नाम है जो किसी को कभी भी हो सकता है.इस रोग का ईजाद मेरे चैनल के संवाददाता ने किया था लेकिन अब ये रोग महामारी की तरह तेजी से फैल रहा है.इसे जल्द ही नहीं रोका गया तो ये पूरी दुनिया को अपने कब्जे में ले लेगा.
रोग के लक्षणों से आपको वाकिफ कराता हूं.

1- किसी प्रतिद्वंदी से आगे निकलने की होड़ में ऊट पटांग और बिना सिर पैर की बातें करना
2- किसी को नीचा दिखाने के लिये फेंकने की हद पार कर जाना
3- बेहया की तरह सफेद झूठ बोलना
4- बेइज्जत हो जाने के बाद दांत निपोरना
5- अपने आप को सच साबित करने के लिये किसी भी हद तक गिर जाना
6- लोगों के ध्यानाकर्षण के लिये अल-बल बकवास करना और ज़बरन हंसाने की कोशिश करना
7- चुटकुले करने के बाद लोगों के ना हंसने पर अपने ही जोक पर खूब ज़ोर ज़ोर से हंसना ताकि चुटकुले का सम्मान बचा रहे
8- अपने दादा परदादा की इतनी तारीफ करना की लोग उन्हें सुपरमैन समझ लें
9- किसी लड़की के मुस्कुरा देने के बाद दोस्तों को दिखाना कि वो लाइन दे रही है

तो मित्रों कुल मिलाकर इंसान जब अलबला जाता है तो अलबलाइटिस का शिकार हो जाता है.अब तक मेरे द्वारा किये गए रिसर्च में इस रोग के ये मुख्य लक्षण सामने आए हैं.मुझे तो डर लग रहा है क्योंकि इस रोग के कुछ लक्षण मेरे अंदर भी हैं शायद आपके अंदर भी हों.इससे बचने के उपाय पर मेरी रिसर्च जारी है.धन्यवाद

Wednesday, May 27, 2009

ट्रांसफर केबल बाबा की जय हो

आज की रिपोर्टर की संजीवनी बूटी कह लीजिये या फिर सबसे धाकड़ जुगाड़ का सामान.
बन्दे को ट्रांसफर केबल कहते हैं
उपनाम -फायर वायर.
लंबाई तकरीबन 30 इंच
रंग- काला,सफेद,लाल,हरा इत्यादि
उम्र- अनिश्चितकालीन
खासियत-सारे रिपोर्टरों की नौकरी बचाने की क्षमता
रिपोर्टर जब अपनी युनिट पैक करवा रहा होता है तो कैमरामैन से एक सवाल ज़रूर पूछता है"ट्रांसफर केबल रखी या नहीं".पूछे भी क्यों ना एक ही रात में एक चैनल के एक ही रिपोर्टर के पास गुड़गांव से लेकर ग्रेटर नोएडा तक की खबरें होतीं हैं,सब इन्हीं ट्रांसफर केबल बाबा की देन है.कुछ रिपोर्टरों ने तो इसे ही अपनी जीविका का साधन बना लिया है.और कुछ के लिये यही जीविका का साधन बन गई है.न्यूज़ चैनल्स की भीड़ में रिपोर्टर्स के बीच जो सामंजस्य बन गया है वो ट्रांसफर केबल बाबा का आशिर्वाद ही तो है.रिपोर्टर को CSR (कॉमन सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी) सिखाने का काम भी टी.सी बाबा के आशिर्वाद की ही देन है.किसी भी रिपोर्टर की नौकरी कभी भी खतरे में पड़ जाए, बड़ी से बड़ी खबर छूट जाए या फिर छोटी से छोटी, टेन्शन नहीं लेने का ट्रांसफर केबल बाबा के पास जाने का..कभी कभी आस पास से गुज़र रहे लोगों की नज़र उन कैमरों पर अनायास ही पड़ जाती है जो कार की छत पर या फिर बोनट पर या फिर ज़मीन पर रखे होते हैं और उन सब में से निकले हुए ट्रांसफर केबल एक दूसरे में कुछ इस तरह जुड़े होते हैं कि समझ में ही नहीं आ रहा होता कि आखिर कौन किसे ट्रांसफर दे रहा है,और कौन किससे ट्रांसफर ले रहा है.दोस्तों यही तो ट्रांसफर केबल बाबा की माया है.तो सभी रिपोर्टर भक्तों ज़ोर से बोलो-ट्रांसफर केबल बाबा की जय हो

पत्थर

एक बार की बात है, मैं नया नया जनमत में क्राइम रिपोर्टर बना था.यूं तो क्राइम रिपोर्टिंग का बड़ा शौक था लेकिन कभी इतनी कर्री क्राइम रिपोर्टिंग की नहीं थी.रात की शिफ्ट के दौरान एक रोज़ मुझे ख़बर मिली की बाराखम्भा रोड पर एक बिल्डिंग से किसी आदमी ने छलांग लगा कर सुइसाइड कर लिया है.हम अपनी युनिट के साथ वहां पहुंचे तो देखा कि एक अधेड़ उम्र का आदमी बिल्डिंग के नीचे टुकड़ों में पड़ा हुआ था.मंजर इतना खौफनाक था कि मुझे चक्कर आने लगे.उसके बाद तीन चार दिनों मुझे सपनों में भी वही सब नज़र आता था.
और आज मैं सोचता हूं,एक वो भी अभिषेक था.करीब एक साल पहले नोएडा में शीबा नाम की एक एक्स एयर होस्टेस का मर्डर हो गया.हम वहां पहुंचे तो अस्पताल की शवगृह में उसकी लाश रखी थी.कुछ देर तक हम सारे रिपोर्टर्स वहां खड़े होकर एक दूसरे से सीएसआर(कॉमन सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी) के तहत शॉट्स और डिटेल्स का आदान प्रदान कर रहे थे.थोड़ी देर में लाश से रिस रहा खून पास में खड़े रिपोर्टर्स के पांवों तक पहुंच गया.हंसी ठिठोली में मशगूल मैंने कहा "अरे थोड़ा साइड हो जाओ वर्ना 120 बी में तुमलोग भी बुक हो जाओगे." और हम सब एक कदम दूर हटकर खड़े हो गए और फिर से अपनी अपनी बकवास करने लगे.थोड़ी देर बाद मुझे एहसास हुआ कि कोई हमें देख रहा है.मरने वाली का ब्वॉयफ्रेंड हमें बहुत देर से देख रहा था.जब मेरी नज़रें उससे मिलीं तो मैं शर्मिंदा हो गया.लेकिन वो मुझसे पूछ बैठा "तुम लोग रिपोर्टर हो या पत्थर".और तब से मुझे वाकई एहसास होता है कि हमारे अंदर का एहसास मर चुका है.खून और लाशें देख-देख कर अब उनकी कोई कद्र नहीं रह गई है.

Monday, May 18, 2009

भोकाल टाइट तो फ्यूचर ब्राइट

टाइटल पढ़कर चौंकियेगा मत, ये ज़िदगी की असलियत है।बचपन में ये कहावत थी लेकिन जब से दुनियादारी सीखी है,ये चरितार्थ हो गई है।कभी ऑफिस में तो कभी परिवार में तो कभी दोस्तों के बीच जिसका भी भोकाल टाइट रहा उसका फ्यूचर निश्चित तौर पर ब्राइट हुआ है। भोकाल टाइट का मतलब शब्दों में समझाना नामुमकिन है। इसके लिये कुछ उदाहरण ही काफी हैं। जैसे ऑफिस से किसी टुच्चे से काम के लिये भेजे जाने पर मैंने विरोध किया और कहा कि मेरी शिफ्ट खत्म हो गई है, और भी लोग हैं उन्हें क्यों नहीं भेजते, तो मुझे जवाब मिला कि उन लोगों का भोकाल टाइट है। वो टका सा जवाब देंगे और चलते बनेंगे। तब मुझे एहसास हुआ कि मैं तो उन लोगों के सामने बहुत ही तुच्छ प्राणी हूं। मैंने कभी अपना भोकाल टाइट करने की कोशिश नहीं की, लगता है इसीलिये मेरे फ्यूचर से खिलवाड़ हो रहा है। भोकाल टाइट करने के लिये सबसे पहले बॉस को खोफ्चे में लेना पड़ता है। उसके बाद सहकर्मियों से थोड़ी दूरी बनानी पड़ती है। बॉस जब भी ऑफिस में नज़र आए तो उससे चिपक जाना पड़ता है। कोई कुछ काम बोले तो उसे बहुत ही बिज़ी होकर दिखाना पड़ता है। तब जाकर धीरे धीरे भोकाल टाइट होता है। और हां जिन लोगों का भोकाल टाइट होता है उनका ही फ्यूचर ब्राइट होता है।

Tuesday, April 14, 2009

नेता का पहाड़ा

क्या होता है नेता...
प्रश्न- किसी ज़माने में एक दूसरे के दुश्मन बने नेता जब चुनाव के वक्त एक दूसरे का हाथ थाम लेते हैं,तो देश का कैसे उद्धार होता है...
उत्तर- ये है नेता का पहाड़ा.

नेता एकम् नेता
नेता दूनी भाषण
नेता तीया अनशन
नेता चौके प्रदर्शन
नेता पंचे चंदा
नेता छके फंदा
नेता सते गोलमाल
नेता अठे हड़ताल
नेता नवे देशनाश
नेता दहईया सत्यानाश...

गुस्ताखी माफ

Friday, April 10, 2009

तुम्हारे लिये-

जब तुम मेरे आसपास नहीं होते हो तो कभी कभी तुम्हारी खुश्बू सांसों में आ जाती है और लगता है कि तुम यहीं कहीं हो.एक आंसू आंखों से निकलकर गाल पर लुढ़कता है और तुम्हारी गर्माहट का एहसास कराता है.कोई हवा का झोंका पास से गुज़रता है तो ऐसा लगता है मानों तुमने मेरा नाम पुकारा है.फिर पलट कर देखता हूं तो कोई नहीं होता कोई भी नहीं.पूरे घर में सन्नाटा भांय भांय कर रहा होता है.ना जाने फिर किस सोच में डूब जाता हूं.तुम्हारी तस्वीर देखकर मैं क्या सोचता हूं ये मुझे खुद ही याद नहीं रहता.क्योंकि इतना कुछ सोच जाता हूं की शायद वो याद्दाश्त से बाहर हो जाता है.तुम्हें पहली बार जब देखा था.तुम जब पहली बार मुस्कुराये.जब तुम मेरे दिल के इतने करीब आए.और तब से लेकर आज का दिन तुम्हारी तस्वीर देखते ही बहुत तेज़ी से मेरी आंखों के सामने से गुज़र जाता है.चाहता हूं की उस वक्त उन तेजी से भाग रहे पलों में से किसी एक को दबोच लूं और उसमें एक बार फिर से जी लूं.पर शायद यहां बैठकर तुम्हारा इंतेज़ार करना उन बीते लम्हों से ज्यादा अच्छा है...है ना

लड्ढा

एक बार मैं आरुषी हत्याकांड की कवरेज पर था.दरसल मैंने 16 -17 मई 2008 से लेकर 30 जून 2008 तक सिर्फ यही काम किया था.रोज़ सुबह उठकर वहीं नोएडा के सेक्टर 25 पहुंच जाता, फिर शाम को वहां से घर पहुंचकर सो जाता.खैर इस केस से मैंने बहुत कुछ सीखा लेकिन इस ब्लॉग में मैं आपको आरुषि केस की एक ऐसी घटना के बारे में बताता हूं जो आपको हंसने पर मजबूर कर देगी.
आरुषि के घर के आस पास रात की शिफ्ट के रिपोर्टर सो रहे थे, मैं मॉर्निंग शिफ्ट में वहां पहुंचा तो देखा की सब अपनी अपनी गाड़ी से बाहर निकलकर जम्हाइ और अंगड़ाईयां ले रहे थे.तभी एक रिपोर्टर ने नुपुर तलवार का शेड्यूल याद दिलाते हुए कहा कि आज वो मंदिर जाएंगी और फिर डॉ. तलवार से मिलने डासना जेल जाएंगी.सभी कैमरामैन अपनी अपनी पोज़िशन लेकर तैनात हो गए. मानो बंकर में घुस रहे हैं और दुश्मन पर हमले का वक्त आ गया है.नुपुर तलवार आई तो सबने उसके मुंह पर कैमरा और माइक लगा दी.वैसे तो उससे पूछने के लिये तमाम सवाल थे लेकिन सवाल पूरे नहीं हो पाए और नुपुर मंदिर जाने के लिये अपनी कार में बैठ गई , लेकिन तब तक सारे रिपोर्टर और कैमरामैन वहां से गायब हो चुके थे.दरसल वो अपनी कारों की ओर भागे और फिर नुपुर की गाड़ी के चारों ओर न्यूज़ चैनल्स की गाड़ियां नज़र आ रही थीं.सीन कुछ ऐसा था मानो नुपुर तलवार नहीं कोई वीवीआईपी का काफिला चल रहा हो.कुछ कैमरामैनों ने रिपोर्टर्स से अपने पैर पकड़वाये, अरे भाई गाड़ी से बाहर लटक के शॉट्स जो बना रहे थे.खैर इस काफिले में एक चैनल की गाड़ी सबसे पीछे थी.उसके पास मारुति वैन जो थी.उसके अंदर बैठे रिपोर्टर ने ड्राइवर से गाड़ी तेज़ चलाने को कहा.लेकिन गाड़ी के गति पकड़ते ही वो रिपोर्टर अपनी सीट पर टप्पा खाता हुआ नज़र आया, उसके हाथ में एक सिगरेट भी थी जो कार में ही कहीं गिर गई .कुछ दूरी पर एक रेड लाइट पर नुपुर की कार रुकी, साथ साथ सारे चैनल्स की कारें भी रुकी.30 सेकंड की रेडलाइट में भी कैमरामैन कोई मौका नहीं गंवाना चाहते थे.सो वो लपक कर कारों से उतरे और नुपुर की कार में आकर चिपक गए.पीछे से उस चैनल की वैन आ रही थी. वैन उस रेड लाइट पर रुकी और उसका कैमरामैन गाड़ी से उतरकर नुपुर के शॉट्स लेने के लिये बढ़ा.लेकिन उसके दो कदम बढ़ाते ही लाइट ग्रीन हो गई और सबकी कारें हवा से बातें करने लगीं.आखिर में अपनी कार से हार मानकर उस रिपोर्टर ने दूसरे रिपोर्टर को फोन करके कहा कि जब सब शूट हो जाए तो ट्रांसफर दे देना.उसके बाद से हमारे एक मित्र पत्रकार ने उस गाड़ी का नामकरण कर दिया.अब भी हम उस कार को लड्ढा कहकर पुकारते हैं.