26/11 को मुंबई पर हुआ आतंकी हमला कई मायनों में सबकी आंखें खोल देने वाला था। लेकिन असल में इस हमले के बाद प्रशासन की आंखें कितनी खुलीं हैं
मैं इस पर प्रकाश डालता हूं। मुंबई में समंदर के रास्ते दस आतंकी घुसे पूरे मुंबई में खुलेआम फायरिंग करते रहे। इसके बाद वो अपने ठिकानों पर पहुंचे और कई लोगों को
मारा और बंधक बनाया।मुंबई पुलिस के जवान आतंकियों के सामने पूरी तरह से घुटने टेकते नज़र आए।आतंकियों ने खुलेआम करीब 30 पुलिस कर्मियों को मार डाला
जबकि कवर लेने और छुपे होने बावजूद एनएसजी ने ऑपरेशन ब्लैक टोरोनैडो में 8 आतंकियों को मार गिराया। और इस ऑपरेशन में एनएसजी के महज़ दो जवान शहीद हुए,मेजर संदीप और सिपाही गजेंद्र ।इस तुलना में मुंबई पुलिस ने केवल एक आतंकी को मारा और इस हमले में मुंबई पुलिस
के सारे टॉप कॉप्स शहीद गए। एक चश्मदीद के मुताबिक आतंकियों ने महज 15 सेकंड में पुलिस की कार पर हमला किया और एटीएस चीफ हेमंत करकरे समेत अशोक
काम्टे और विजय सालस्कर को मार डाला कार से सबकि लाशें बाहर फेंककर कार लेकर भाग गए। दरसल इसकी एक सबसे बड़ी वजह थी राज्यों की पुलिस को दी जाने
वाली घटिया और पुराने ज़माने की ट्रेनिंग। किसी जवान के पास आतंकियों को रोकने के लिये डंडा था तो किसी के पास आतंकियों की ए.के 47 और एम.पी 5 के
मुकाबले के लिये थी .303 की अंग्रेजों के ज़माने की रायफलें। किसी जवान के पास करबाइन थी तो वो दो गोलियां चलाने के बाद ही जाम हो गई। कुल मिलाकर किसी
भी पुलिस वाले के पास ना ऐसी तकनीक थी ना ही ऐसी ट्रेनिंग जिससे की वो आतंकियों का सामना कर सकें।इस हमले में पुलिस कर्मियों और आरपीएफ के जवानों समेत करीब
137 लोग मारे गए और करीब 300 लोग घायल हो गए। मुंबई पर हमले के बाद कई तरह के सुरक्षा इंतज़ाम किये गए। लेकिन असलियत तो ये है कि अभी तक मुंबई और
दिल्ली को छोड़कर ज्यादातर राज्यों की पुलिस की हालत खस्ता है। झारखंड में नक्सलियों ने इंस्पेक्टर इंदुवार का सिर कलम कर दिया तो पूरे देश में सनसनी फैल गई। बहुत
कम लोगों को पता होगा कि इंस्पेटक्टर फ्रांसिस इंदुवार का ट्रांसफर होने के 6 महीने बाद उनकी मौत हो जाने तक उन्हें तन्ख्वाह नहीं मिली थी। हद तो तब हो गई जब
नक्सलियों से जूझ रहे बिहार, बंगाल और झारखंड पुलिस के जवानों को लुंगी पहने ड्यूटी करते देखा गया। कुछ राज्यों की पुलिस को ए.के 47 और इंसास दे दी गई
इसका मतलब ये नहीं की मौका पड़ने पर वो उसका इस्तेमाल कर लेंगे। हर वक्त कमाई के चक्कर में उलझे रहने के अलावा ट्रेनिंग लेना पुलिसकर्मियों के बस की बात नहीं।
ऑटोमेटिक हथियार हाथ में पकड़ा देने का ये मतलब नहीं होता कि वो आतंकियों के खिलाफ काम आएंगे। उन हथियारों को चलाने के लिये ज़बरदस्त ट्रेनिंग की ज़रूरत
पड़ती है, और सही मायनों में राज्यों की पुलिस को मिलने वाली ट्रेनिंग लगभग एनसीसी की ट्रेनिंग के बराबर होती है। कुल मिलाकर बात ये है कि अगर आप अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं तो आपको असलियत जानने के लिये ज्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है।
बस घर से निकलिये और चौराहे पर खड़े पुलिसवालों की हरकतें देखिये। आपको ख़तरे का अंदाज़ा खुद-ब-खुद हो जाएगा। लेकिन बात सिर्फ पुलिस को कोसने से खत्म नहीं होती। 26/11 के बाद हमने और आपने कसाब और पाकिस्तन को गालियां देने के अलावा और क्या किया है। ज़रा पीछे जाएं तो हकीकत सामने आएगी। दिल्ली पुलिस के दिलेरों ने बटला हाउस में आतंकियों का एनकाउंटर किया था। उस एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस के सुपरकॉप मोहनचंद शर्मा की मौत हो गई थी। लेकिन उस एनकाउंटर को फर्जी ठहराने की कितनी कोशिश की गई। ये किसी से छुपा नहीं है। अगर हम इसी तरह से हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो 26/11 जैसे हमले होते रहेंगे और बटला हाउस जैसे असली एनकाउंटरों पर सवाल उठते रहेंगे
जय हिन्द
Tuesday, November 24, 2009
Tuesday, November 10, 2009
कैसे हैं बाबू साहब ?
इस बार मैं अपनी नानी जी की तेरही पर बनारस गया। फिर दूसरे दिन वहां से मुगलसराय अपने घर गया। पापा की नई कार में घूमने की इच्छा थी। बहुत अच्छा लगा। एक दिन का वक्त मिला सिर्फ उसी रात बनारस से ट्रेन पकड़नी थी। मैं घर के छोटे मोटे काम निपटा रहा था कि तभी बाबा जी (दादा जी) ने कहा कि उन्हें डीआरएम ऑफिस जाना है पास बनवाने। मैंने कहा कि मैं उन्हें ले चलूंगा। हम दोपहर में डीआरएम ऑफिस पहुंच गए। पास बनाने वाले क्लर्क से मिलकर जैसे ही हम लौटने लगे तभी ऑफिस के अंदर से एक के बाद एक लोगों की आवाजें आने लगीं। ऐ बाबू साहेब- ऐ बाबू साहेब(पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में रसूख़दार राजपूतों को बाबू साहेब कहकर बुलाते हैं) । मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक आदमी बाबा जी की ओर इशारा करके रुकने को कह रहा था। काफी बुज़ुर्ग था। एक पैर भी नाकाम हो गया था उसका। बाबा जी से मिलकर वो रोने लगा। उसने कहा कि रिटायर होने के बाद उसकी ज़िंदगी नर्क बन गई है। ना उसके बेटे उसे पूछते हैं और ना ही उसकी बहुएं। बेचारा चार डंडों वाली बैसाखी से खुद चार किलोमीटर चलकर डीआरएम ऑफिस पहुंचा था। उसने बाबा जी से भी कुछ ऐसा ही सुनने की उम्मीद की थी। लेकिन मैंने उस वक्त बाबा जी की आखों में जो चमक देखी वो आज तक नहीं देखी थी। बाबा जी ने सगर्व मेरा परिचय उन बुज़ुर्ग जनाब से कराया और कहा "ई हमारा पोता है,दिल्ली में टीवी न्यूज़ चैनल में रिपोर्टर का काम करता है, छुट्टी में घर आया था तो हमको लेकर यहां आ गया, पास बनने को दे दिये हैं, शाम को यही आकर पास ले जाएगा "। उम्र के आखिरी पड़ाव में, करीब 78 साल की उम्र में बाबा जी के चेहरे पर इतनी खुशी देखकर मेरा दिल बाग बाग हो गया। ऐसा लग रहा था मानो जीवन सफल हो गया। पापा से मिले संस्कार ही थे जो इस दिन के लिये तरस रहे थे कि बाबा जी मेरी पीठ पर हाथ रखकर मेरा परिचय अपने दोस्तों से करवाएं और उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाए। उनसे मिलने के बाद बाबा जी से करीब 10 ऐसे ही बुज़ुर्ग मिले और सबने पूछा " कैसे हैं बाबू साहब "। इस पर बाबा जी का जवाब था। "हम तो एकदम ठीक हैं आप सुनायें"। बाबा जी के इस जवाब में कटाक्ष भी था और घमंड भी। लेकिन मेरे लिये तो ये अपनी ज़िंदगी के सबसे अच्छे अनुभवों में से एक था। बाबा जी के चेहरे पर खुशी की वो लकीर तब तक नज़र आई जब तक मैं घर से रवाना नहीं हो गया। इस तेज़ी से बदलती दुनिया में जो बचे खुचे संस्कार हमारे अंदर हैं उसमें अपने बड़ों की इज्ज़त करना सबसे बड़ा संस्कार है। उम्मीद है कि इस घटना को पढ़ने के बाद आपलोग उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंचे एक बुज़ुर्ग की मानसिकता से वाकिफ हो चुके होंगे।
अगर आपके पास भी ऐसा कोई अनुभव हो तो मुझसे ज़रूर बांटियेगा।
धन्यवाद
अगर आपके पास भी ऐसा कोई अनुभव हो तो मुझसे ज़रूर बांटियेगा।
धन्यवाद
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