Sunday, April 11, 2010

स्लडॉग रिपोर्टर


एक दिन मैं जी मेल पर अपने एक पुराने मित्र के साथ चैटिंग कर रहा था।उसने मुझसे पूछा कि तुम कहां हो और क्या कर रहे हो। मैंने तपाक से टाइप किया भाई वहीं पर हूं स्टिल ए स्लमडॉग रिपोर्टर।फिर मेरे मित्र ने पूछा कि मैंने ऑरकुट, फेस बुक, जीमेल हर जगह अपने को स्लडॉग रिपोर्टर क्यों लिख रखा है। मेरे जवाब ने उसे हैरत में डाल दिया। दरसल स्लमडॉग रिपोर्टर वो होता है जो किसी दलित चैनल में काम करता है। है।जो खबरें तो ब्रेक करता है लेकिन किसी को पता ही नहीं चलता ।वो एक्सक्लूज़िव भी करता है लेकिन किसी के कान में जूं नहीं रेंगतीं। अपनी हर खबर को उसे बड़े चैनल के रिपोर्टर को तोहफे के तौर पर देनी पड़ती है ताकि उसका इम्पैक्ट हो। दिन भर बस खबरों के पीछे भागता रहता है और जब पेट में दर्द होता है तो याद आता है कि खाना तो सुबह से खाया ही नहीं। फिर दो कदम आगे चलता है तो उसे महसूस होता है कि उसका ब्लैडर फटने को है, क्योंकि जब से शूट पर निकला है तब से ट्वायलेट करने का वक्त ही नहीं मिला।अपने शरीर हर तरह से अत्याचार करता है।जब रात को वो घर पहुंचता है तो उसकी हालत देखकर ऐसा लगता है मानो एक बीघा खेत को दस ट्रैक्टरों ने एक साथ जोत दिया हो। रात को दो बजे सोता है तो सुबह नींद बॉस के फोन से खुलती है। सुबह सात बजे का लाइव मांगता है। बेचारा बिन नहाए धोए स्पॉट पर पहुंच जाता है।अगर बुलेटिन शुरू होने तक लाइव पर खड़ा नहीं हुआ तो एसाइनमेंट सिर पर धनिया बो देता है और बॉस छाती पर चरस बो देता है। कुछ पुलिस वाले मित्रों के साथ बैठकर अपने आपको दिल्ली का राजा समझता है। बाहरी दुनिया के लोगों में उसकी बहुत अहमियत है ,लोग उसे बहुत बड़ा आदमी समझते हैं इसलिये वो लोगों को अपनी सैलरी नहीं बताता।कभी किसी को बता भी देता है तो उसे विश्वास नहीं होता।कभी कहीं से कोई जबरदस्त ऐतिहासिक स्टोरी करके ला देता है तो पता चलता है कि ये स्टोरी यहां नहीं चल सकती।उसके पास कपड़े धोने का वक्त नहीं होता मजबूरी में उसे बदबूदार कपड़े पहनने पड़ते हैं।लेकिन शेव हर रोज़ करना होता है वर्ना बॉस की गालियां पड़ेंगी और पीटीसी भी ऑन एयर नहीं होगा।उसके पड़ोसी भी नहीं जानते की घर में वो कब रहता है, क्योंकि जब वो सोते हैं तब रिपोर्टर घर पहुंचता है और उनके उठने से पहले ही ऑफिस के लिये निकल जाता है। बड़ा ही जीवट प्राणी होता है ये स्लमडॉग रिपोर्टर। मां से मिलने के लिये उसे छुट्टियां नहीं मिलतीं।मां और भाई हर रोज़ एक सवाल ज़रूर करते हैं कि घर कब आना होगा। कभी कभी उसे काफी इज्जत मिलती है जब किसी की गाड़ी पकड़ ली जाती है या फिर कोई पुलिस के पचड़े में फंस जाता है तो उसे स्लमडॉग रिपोर्टर याद आता है।कभी मैच के पास जुगाड़ने तो कभी मोबाइल खोने की रपट लिखवाने में वो लोगों की गाहे बगाहे मदद कर दिया करता है। यही स्लमडॉग रिपोर्टर कहलाता है।

Sunday, February 28, 2010

अपराधबोध


होली से एक दिन पहले मैं रात देर से सोया।
सुबह कई फोन आते रहे तो मोबाइल साइलेंट करके फिर सो गया।
फिर अचानक मां का फोन आया लेकिन मोबाइल तो साइलेंट रह गया था।
मैं जब उठा कॉल बैक किया तो भाई ने फोन उठाया और बोला-मां बहुत गुस्सा है, रो भी रही है।मैंने उससे कहा उससे तुरंत बात कराओ। मैं घबरा गया था । मां ने काफी मुश्किल से आंसू रोककर फोन लिया और मुझसे कहा-कि सुबह बड़े पापा (ताऊजी) का बेटा दरवाजे पर आया था, मां ने चश्मा नहीं लगा रखा था और उसे लगा कि मैं आ गया हूं ,उसे सर्प्राइज़ देने। वो खुशी से पागल सी हो गई और दौड़कर उसके पास गई लेकिन जैसे ही वो दिखा उसका दिल धक्क सा कर गया। खैर उसे बिठा कर चाय पिलाई। फिर मुझे फोन मिलाया था।इतना कुछ सुनकर एक अजीब सा अपराधबोध हुआ। अंजाने में मां को इतना दुख पहुंचाकर मैं भी रो पड़ा। ख़ैर अपने मन को ये दिलासा दिलाई कि वो तो बुद्धू है उसे क्या पता रिपोर्टर की नौकरी कैसी होती है, उससे जल्दी ही आने का झूठा वादा करके उसके दिल को तसल्ली दे दी, और फिर ऑफिस के लिये निकल पड़ा। फिर एक मित्र को फोन करके सारी व्यथा सुनाई और जमकर चैनल को कोसा, उसके बाद अपनी औकात पर आया और पूछा यार कोई खबर तो नहीं है ना अभी ? कुछ हो तो बता देना।

Wednesday, January 13, 2010

राष्ट्रीय खेल कौन?बूझो तो जानें


किंग खान की फिल्म चक दे इंडिया से प्रेरित होकर मैंने ये टाइटल रखा है। वाकई में फिल्म और वास्तविकता में ज़मीन आसमान का फर्क होता है। देश के लिये एक बड़े शर्म की बात है कि राष्ट्रीय खेल की ये दुर्दशा है। हॉकी खिलाड़ी मुफ्त में मिलने वाली सरकारी नौकरी ना कर देश के लिये खेलना चाहते हैं। लेकिन बात साफ है-भूखे भजन ना होत कृपाला।


पता नहीं किसी के कान पर जूं क्यों नहीं रेंगती। किसी को देश का इतना बड़ा अपमान क्यों नज़र नहीं आता। आखिरकार जब हॉकी खिलाड़ियों ने भारतीय जनतंत्र के सबसे पापुलर हथियार (हड़ताल) का इस्तेमाल किया तभी जाकर सारे कैमरों का रुख उनकी ओर हुआ। और ये बात सच है कि कैमरों का रुख अगर उनकी ओर ना होता और सारे चैनल हड़ताल की ख़बर को हेडलाइन नहीं बनाते तो शायद कुछ नहीं होता और आईएचएफ के अड़ियल अधिकारी वर्ल्ड कप के लिये वैकल्पिक टीम की व्यवस्था भी करने लगते।

बहरहाल मुद्दा बेइज्ज़ती का है। कई देश में बैठे लोगों ने ये ख़बर देखी होगी कि भारत में राष्ट्रीय खेल के ये दुर्दिन हैं , कि खिलाड़ी पैसा ना मिलने पर हड़ताल पर जा रहे हैं। इससे तो अच्छा है कि इतिहास को रिफ्रेश कर दिया जाए और क्रिकेट को ही राष्ट्रीय खेल बना दिया जाए।