Saturday, June 20, 2009

बॉस की मर्सीडीज़


लाल सलाम करके लालगढ़ को लाल रंग में रंग दिया गया।फोर्स भेजी गई थी लाल झंडे वाले दंगाइयों से निपटने के लिये।लेकिन फोर्स के हत्थे चढ़े आम लोग।इन आम लोगों में से कई माओवादियों के साथ नहीं थे।लेकिन इतनी बुरी तरह से पिटने के बाद ये लोग यही सोच रहे होंगे कि इससे अच्छा तो उनके साथ ही होते। बेशक अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी चाहिये, लेकिन बंदूक नहीं। तमाम तर्क ऐसे हैं जो वाम विचारधारा के खिलाफ हैं। इसी बात को लेकर मेरे और मेरे एक कॉमरेड दोस्त के बीच बहस शुरू हो गई। मैंने उससे पूछा कि वो तो लाल सलाम इसलिये करते हैं क्योंकि उनके पास वैसी समस्याएं हैं या फिर वो ऐसे लोगों के प्रभाव में हैं जो उन्हें ये करने के लिये उकसाते हैं। तुम क्यों उनका समर्थन करते हो। उसका जवाब सुनकर मेरे पास अगला सवाल करने की हिम्मत नहीं हुई।उसने कहा कि मैं जहां काम करता हूं वहां मुझे दो साल से सिर्फ दस हजार रुपए मिल रहे हैं। तन्ख्वाह आने के इंतेज़ार में कभी महीने के बीस दिन गुज़र जाते हैं को कभी उससे भी ज्यादा। ये समस्या उसके ऑफिस के सभी कर्मचारियों के साथ थी। सिवाय उसके बॉस के। वो उस परिस्थिती में भी अपनी मर्सिडीज़ से घूमता है। और फाइव स्टार होटलों में मीटिंग करता है। उसने कहा कि जब मकान मालिक को देने के लिये पैसे नहीं होते हैं तो उसे बॉस की मर्सिडीज़ की याद आती है। अगर उसके चार पहिये निकाल कर बेच दिये जाएं तो कंपनी के लिये पसीना बहा रहे दस लोगों की तन्ख्वाह का इंतज़ाम हो जाएगा। मार्क्सवादी या माओवादियों को गलत ठहराना मेरे लिये बहुत ही आसान था।लेकिन अपने मित्र के इस सवाल का जवाब देना उतना ही मुश्किल।क्योंकि शायद ये कोफ्त मेरे अंदर भी है, शायद आपके अंदर भी होगा।लालगढ़ में हंगामा करने वालों और मेरे कॉमरेड मित्र में फर्क बस इतना नहीं कि वो माओवादी हैं और मेरा मित्र मार्क्सवादी, असल फर्क तो ये है कि वो अपने गुज़र बसर के लिये किसी की जी हुजूरी करने के लिये मजबूर नहीं है ,लेकिन मैं और मेरा कॉमरेड दोस्त इस बात से ताल्लुक नहीं रखते। शायद आप भी नहीं।

Friday, June 12, 2009

नई पीढ़ी..एकदम कूल


मेरे पिताजी मुझे नई पीढ़ी का कहते हैं।उनकी ऐसी बहुत सारी उम्मीदें हैं जिनपर मैं खरा नहीं उतरता।जी हां बिल्कुल मैं जात पात और धर्म में विश्वास नहीं रखता।लेकिन मेरे अंदर अपने देश के लिये आज भी उतना ही सम्मान है जितना मेरे पिताजी को है।मैं कई मायनों में उनसे अलग हूं लेकिन आत्मसम्मान मुझे उनसे ही मिला है। और जब मैं उन नौजवानों को देखता हूं जो ऑस्ट्रेलिया में पिट रहे होते हैं तो मैं सोचता हूं कि ये हैं तो मेरी पीढ़ी के लेकिन इनका आत्मसम्मान कहां गया। ये कोई पहला देश नहीं है जहां भारतीयों पर हमले हो रहे हैं। इसके बचाव में लोग ये कह देते हैं कि लोग भारतीयों की सफलता से चिढ़ते हैं इसलिये वो खीज में हमपर हमला करते हैं। ये मेरी ही पीढ़ी के वो कूल लोग होते हैं जिन्हे बहुत ही छोटी सी दाढ़ी या फिर करंट लगे हुए बाल रखने का शौक है। ये वही लोग हैं जिन्हें अंग्रेजी का ए टू जेड आता है लेकिन हिंदी के क से ज्ञ तक का ज्ञान उन्हें नहीं है।अगर इनसे राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के बीच अंतर पूछ लिया जाए तो इन्हें पता ही नहीं।और कहते हैं कि हम बहुत कूल हैं। अगर वो भारतीयों से चिढ़ते हैं तो पहले तुम्हें भारतीय बनकर दिखाना होगा। मैं चाहता तो मैं भी बी फार्मा या फिर ऐसा ही कोई कोर्स करके बड़े आराम से कनाडा चला जाता। लेकिन यहां रहकर कम पैसे में एक सम्मानजनक नौकरी करना मैने बेहतर समझा। माना हिंदुस्तान में नौकरियां कम हैं लेकिन इतनी कम भी नहीं कि हम विदेशियों के जूते खाकर और फिर उन्हीं की नौकरी करें।लेकिन इन सवालों का उनके पास जवाब है कि वो बहुत कूल हैं उन्हें इन सब चीज़ों से कोई फर्क नहीं पड़ता।कमाल है ये लोग आखिर कितने कूल हैं। मैं भी बहुत कूल हूं लेकिन इनके जितना नहीं कि कोई देश को गाली देकर चला जाए और मैं चुपचाप सह लूं। कूल होना बहुत अच्छी बात है लेकिन इतना भी नहीं कि खून ही ठंढा पड़ जाए। विदेश जाने में कोई भी बुराई नहीं लेकिन अपना खेत बेचकर विदेशियों के खेत में मज़दूरी करना कहां तक सही है। मैं अक्सर ऐसे लोगों से दो चार होता हूं जो फर्जी तरीके से विदेश जाने के लिये अपना सब कुछ बेच देते हैं।उसके बाद या तो उन्हें पुलिस पकड़ लेती है या सड़क पर आ जाते हैं। लेकिन फिर भी विदेश जाने को आतुर रहते हैं। गोरों के दो सौ साल क्या कुछ कम थे की आज भी उनकी गालियां सुनते हो। इतना क्या कूल होना है यारों की तुम्हें हिंदुस्तान से कोई मतलब ही ना रह जाए।हम आज भी यहीं जीते हैं और बहुत खुशी से जीते हैं।सिर उठाकर जीते हैं। ग्लोबलाइज़ेशन की दुहाई देकर लोग विदेश चले जाते हैं। हमारे देश में कब ऐसा ग्लोबलाइज़ेशन आएगा कि गोरे यहां नौकरी करने आएंगे।ग्लोबलाइज़ेशन लाने वाले तो इतने कूल हैं कि उन्हें इनसे कोई मतलब ही नहीं। उनके लिये कूल होने का मतलब है मतलबी होना। सिर्फ पैसा और एशो आराम सोचना।अब भी जिसका खून ना खौला खून नहीं वो पानी है।देश के जो काम ना आए वो बेकार जवानी है। लेकिन इनका खून खौलेगा कैसे क्योंकि ये लोग तो बहुत कूल हैं ना....
जय हिन्द