Sunday, February 28, 2010

अपराधबोध


होली से एक दिन पहले मैं रात देर से सोया।
सुबह कई फोन आते रहे तो मोबाइल साइलेंट करके फिर सो गया।
फिर अचानक मां का फोन आया लेकिन मोबाइल तो साइलेंट रह गया था।
मैं जब उठा कॉल बैक किया तो भाई ने फोन उठाया और बोला-मां बहुत गुस्सा है, रो भी रही है।मैंने उससे कहा उससे तुरंत बात कराओ। मैं घबरा गया था । मां ने काफी मुश्किल से आंसू रोककर फोन लिया और मुझसे कहा-कि सुबह बड़े पापा (ताऊजी) का बेटा दरवाजे पर आया था, मां ने चश्मा नहीं लगा रखा था और उसे लगा कि मैं आ गया हूं ,उसे सर्प्राइज़ देने। वो खुशी से पागल सी हो गई और दौड़कर उसके पास गई लेकिन जैसे ही वो दिखा उसका दिल धक्क सा कर गया। खैर उसे बिठा कर चाय पिलाई। फिर मुझे फोन मिलाया था।इतना कुछ सुनकर एक अजीब सा अपराधबोध हुआ। अंजाने में मां को इतना दुख पहुंचाकर मैं भी रो पड़ा। ख़ैर अपने मन को ये दिलासा दिलाई कि वो तो बुद्धू है उसे क्या पता रिपोर्टर की नौकरी कैसी होती है, उससे जल्दी ही आने का झूठा वादा करके उसके दिल को तसल्ली दे दी, और फिर ऑफिस के लिये निकल पड़ा। फिर एक मित्र को फोन करके सारी व्यथा सुनाई और जमकर चैनल को कोसा, उसके बाद अपनी औकात पर आया और पूछा यार कोई खबर तो नहीं है ना अभी ? कुछ हो तो बता देना।

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