Tuesday, November 24, 2009
26/11 के बाद ढाक के तीन पात
मैं इस पर प्रकाश डालता हूं। मुंबई में समंदर के रास्ते दस आतंकी घुसे पूरे मुंबई में खुलेआम फायरिंग करते रहे। इसके बाद वो अपने ठिकानों पर पहुंचे और कई लोगों को
मारा और बंधक बनाया।मुंबई पुलिस के जवान आतंकियों के सामने पूरी तरह से घुटने टेकते नज़र आए।आतंकियों ने खुलेआम करीब 30 पुलिस कर्मियों को मार डाला
जबकि कवर लेने और छुपे होने बावजूद एनएसजी ने ऑपरेशन ब्लैक टोरोनैडो में 8 आतंकियों को मार गिराया। और इस ऑपरेशन में एनएसजी के महज़ दो जवान शहीद हुए,मेजर संदीप और सिपाही गजेंद्र ।इस तुलना में मुंबई पुलिस ने केवल एक आतंकी को मारा और इस हमले में मुंबई पुलिस
के सारे टॉप कॉप्स शहीद गए। एक चश्मदीद के मुताबिक आतंकियों ने महज 15 सेकंड में पुलिस की कार पर हमला किया और एटीएस चीफ हेमंत करकरे समेत अशोक
काम्टे और विजय सालस्कर को मार डाला कार से सबकि लाशें बाहर फेंककर कार लेकर भाग गए। दरसल इसकी एक सबसे बड़ी वजह थी राज्यों की पुलिस को दी जाने
वाली घटिया और पुराने ज़माने की ट्रेनिंग। किसी जवान के पास आतंकियों को रोकने के लिये डंडा था तो किसी के पास आतंकियों की ए.के 47 और एम.पी 5 के
मुकाबले के लिये थी .303 की अंग्रेजों के ज़माने की रायफलें। किसी जवान के पास करबाइन थी तो वो दो गोलियां चलाने के बाद ही जाम हो गई। कुल मिलाकर किसी
भी पुलिस वाले के पास ना ऐसी तकनीक थी ना ही ऐसी ट्रेनिंग जिससे की वो आतंकियों का सामना कर सकें।इस हमले में पुलिस कर्मियों और आरपीएफ के जवानों समेत करीब
137 लोग मारे गए और करीब 300 लोग घायल हो गए। मुंबई पर हमले के बाद कई तरह के सुरक्षा इंतज़ाम किये गए। लेकिन असलियत तो ये है कि अभी तक मुंबई और
दिल्ली को छोड़कर ज्यादातर राज्यों की पुलिस की हालत खस्ता है। झारखंड में नक्सलियों ने इंस्पेक्टर इंदुवार का सिर कलम कर दिया तो पूरे देश में सनसनी फैल गई। बहुत
कम लोगों को पता होगा कि इंस्पेटक्टर फ्रांसिस इंदुवार का ट्रांसफर होने के 6 महीने बाद उनकी मौत हो जाने तक उन्हें तन्ख्वाह नहीं मिली थी। हद तो तब हो गई जब
नक्सलियों से जूझ रहे बिहार, बंगाल और झारखंड पुलिस के जवानों को लुंगी पहने ड्यूटी करते देखा गया। कुछ राज्यों की पुलिस को ए.के 47 और इंसास दे दी गई
इसका मतलब ये नहीं की मौका पड़ने पर वो उसका इस्तेमाल कर लेंगे। हर वक्त कमाई के चक्कर में उलझे रहने के अलावा ट्रेनिंग लेना पुलिसकर्मियों के बस की बात नहीं।
ऑटोमेटिक हथियार हाथ में पकड़ा देने का ये मतलब नहीं होता कि वो आतंकियों के खिलाफ काम आएंगे। उन हथियारों को चलाने के लिये ज़बरदस्त ट्रेनिंग की ज़रूरत
पड़ती है, और सही मायनों में राज्यों की पुलिस को मिलने वाली ट्रेनिंग लगभग एनसीसी की ट्रेनिंग के बराबर होती है। कुल मिलाकर बात ये है कि अगर आप अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं तो आपको असलियत जानने के लिये ज्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है।
बस घर से निकलिये और चौराहे पर खड़े पुलिसवालों की हरकतें देखिये। आपको ख़तरे का अंदाज़ा खुद-ब-खुद हो जाएगा। लेकिन बात सिर्फ पुलिस को कोसने से खत्म नहीं होती। 26/11 के बाद हमने और आपने कसाब और पाकिस्तन को गालियां देने के अलावा और क्या किया है। ज़रा पीछे जाएं तो हकीकत सामने आएगी। दिल्ली पुलिस के दिलेरों ने बटला हाउस में आतंकियों का एनकाउंटर किया था। उस एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस के सुपरकॉप मोहनचंद शर्मा की मौत हो गई थी। लेकिन उस एनकाउंटर को फर्जी ठहराने की कितनी कोशिश की गई। ये किसी से छुपा नहीं है। अगर हम इसी तरह से हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो 26/11 जैसे हमले होते रहेंगे और बटला हाउस जैसे असली एनकाउंटरों पर सवाल उठते रहेंगे
जय हिन्द
Tuesday, November 10, 2009
कैसे हैं बाबू साहब ?
अगर आपके पास भी ऐसा कोई अनुभव हो तो मुझसे ज़रूर बांटियेगा।
धन्यवाद
Sunday, October 25, 2009
बीजेपी का क्या होगा कालिया !
Saturday, October 10, 2009
कहां गई राहुल की ट्रेन
Friday, October 9, 2009
हम ही काटेंगे इंडिया की नाक !
जहां लिखा है कि कूड़ा डालना मना है, वहीं सबसे ज्यादा कूड़ा .पता नहीं.ये सूचना पढ़कर लोग उल्टा मतलब निकाल लेते हैं शायद।
जिस दीवार पर लिखा मिल जाए कि यहां पेशाब करना मना है, उसे तो लोग सुलभ शौचालय की तरह इस्तेमाल करते हैं..। आस पास के लोग और राहगीर भी खासतौर पर उसी दीवार को अपना निशाना बनाते हैं..
दिल्ली वालों को साफ सुथरी स्याह सड़कें पसंद नहीं आतीं..
खासतौर से उन लोगों को जो पान और गुटखा खाने के शौकीन हैं. और उनके शौक का शिकार बनती है सड़कों की ख़ूबसूरती..दिल्ली की किसी भी सड़क और दीवारों पर हर जगह लाल रंग के पीक के निशान देखने को मिल जाते हैं.
पैदल चलने वालों पर गलत तरीके से सड़क पार करने के लिये चालान लागू किया गया तो खूब हंगामा मचा, लेकिन तमाम चालान और नियम कायदों के बावजूद दिल्ली में पैदल चलने वाले लोगों की चाल पर कोई असर नहीं पड़ा। उनकी चाल ज्यों की त्यों मदमस्त है।
सरकार ने करोड़ो की लागत और लाखों के घोटालों के बाद सबवे और फुट ओवरब्रिज बनवा तो दिये लेकिन इनका इस्तेमाल करने की ज़हमत कौन उठाए..। सड़क पार करने का इतना बोरिंग तरीका दिल्ली वालों को बिल्कुल पसंद नहीं। अरे भई, जान पर खेलकर सड़क पार करने का मज़ा ही कुछ और है और उसमें ट्रैफिक तेज़ी से भाग रहा हो तो मज़ा दुगुना हो जाता है।
तेज़ रफ्तार ट्रैफिक से राहगीरों को बचाने के लिये उन्हें बेतरतीब तरीके से सड़क पार करने से रोकना था.इसलिये सरकार ने सड़क के डिवाईडर पर बड़ी बड़ी रेलिंग्स तो लगा दीं। लेकिन दिल्ली वालों के लिये इन बड़ी-बड़ी रेलिंग्स को पार करना बहुत छोटी बात है.मानो हर्डल रेस की प्रैक्टिस कर रहे हों.और जिनकी लम्बाई थोड़ी कम है.वो तो इन रेलिंग्स के बीच से ही निकल जाते हैं।
बहरहाल, ये तो थी पैदल चलने वालों की बात..। कार में सवार दिल्ली वाले तो पैदल चलने वालों से भी दो कदम आगे हैं..। ट्रैफिक लाइट रेड हो जाने पर रुकना तो इनकी फितरत में ही नहीं है..। वन वे में उल्टी तरफ से गाड़ी चलाने में जो रोमांच इन्हें मिलता है उसका तो कोई जवाब ही नहीं..।
ज़ेब्रा क्रासिंग बनाई तो गई थी पैदल यात्रियों के सड़क पार करने के लिये, लेकिन सिग्नल रेड होने के बाद कार और बाइक सवार ठीक ज़ेब्रा क्रासिंग पर गाड़ी खड़ी करने को अपनी शान समझते हैं..। शायद ज़ेब्रा क्रासिंग पर खड़े होने का अहसास कुछ और होता हो....यानी ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि कॉमनवेल्थ में विदेशी हमारे यहां आएंगे और हमारी मस्तानी चाल देखकर हैरान रह जाएंगे..।
लेकिन दिल्ली वाले दिल के इतने अमीर हैं कि उन्हें इन छोटी मोटी बातों से कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ता..। कॉमनवेल्थ खेलों में देश की नाक कटे या रहे.. हम तो भई जैसे हैं.वैसे ही रहेंगे।
Saturday, September 19, 2009
शहादत का मज़ाक या मज़ाक की शहादत

1-पहला और सर्वव्यापी सच जिसे लोग जान कर भी नहीं समझते कि फर्जी एनकाउंटर कभी भी रिहायशी इलाकों में नहीं होते।क्योंकि बंदूक से निकली गोली दीवारों से टकराकर किसी को भी लग सकती है।
2- ए.के 47 कोई तभी इस्तेमाल कर सकता है जब वो उसके हाथ में हो यानि की हमले के लिये तैयार बैठा हो। जल्दबाजी में जो हाथ आया उसे ही अपने बचाव में चला देते हैं। कोई भी आतंकी पुलिस को देखने के बाद ए.के 47 ढूंढने नहीं जाता।
3-पुलिस हवाई फायरिंग आतंकियों को डराने के लिये करती है ताकि कोई भी आतंकी गोली चलने की आवाज सुनकर अपनी पोज़िशन चेंज ना कर सके।
4- किसी भी फर्जी एनकाउंटर में पुलिस वालों को गोली नहीं लगती। और अगर गलती से लग भी गई तो इतनी नहीं लगती की उसकी मौत ही हो जाए।
5- एनकाउंटर के इरादे से निकली किसी भी पुलिस टीम के पास बुलेट प्रूफ जैकेट और तमाम तरह के आधुनिक असलहे होते हैं। लेकिन स्वर्गीय शर्मा जी की टीम सिर्फ आतंकियों की रेकी यानि की पहचान के लिये निकली थी।
6- स्पेशल सेल के डीसीपी इतने बेवकूफ नहीं है कि हाथों में पिस्तौल लेकर एल-17 के सामने फोटो खिंचवा ले।
7- जो आतंकी इसमें मारा गया था उसका भाई एक अंग्रेजी न्यूज़ चैनल में कैंरामैन है।और मारा गया आतंकी 4 सालों से दिल्ली में ही अपना घर छोड़कर दूसरे फ्लैट में रह रहा था।
बहरहाल दलीलें तो बहुत हैं, मेरे पास भी और आपके पास भी, लेकिन पिछले एक साल से उन्हें मानने के लिये कोई तैयार नहीं। ना आप ना हम।लेकिन अगर हो सके तो शहादत को सलाम करना सीख लीजिये कोई आपसे देश के लिये आपकी जान नहीं मांग रहा।
जय हिंद
Saturday, September 12, 2009
हाथी बनेगा नया राष्ट्रीय पशु

Sunday, August 30, 2009
वोटे ना देहबा त लईटिया कहां से आई ?
जय हिन्द
Saturday, August 15, 2009
62 साल का बूढ़ा इंडिया
आज इसका 62 वां जन्मदिन है
फिर भी देखने से बिल्कुल बच्चे जैसा लगता है
कई चोटें दीं लोगों ने इसको लेकिन किसी को पलटकर कभी नहीं मारता है।
ये इंडिया भी अजीब है
कोई खादी पहने मंत्री कभी तिरंगे को उल्टा टांग देता है
कोई मदरसा कभी वंदे मातरम् गाने पर फतवा जारी कर देता है
आधे से ज्यादा लोगों को वंदे मातरम् और जन गन मन में फर्क नहीं पता है।
ये इंडिया भी अजीब है
कभी सालों पहले हुए संसद पर हमले के आरोपी की फांसी की सजा टाल दी जाती है
कभी दस आतंकी सरहद पार से आते हैं और सीना छलनी कर जाते हैं
और देश चलाने वाले नेता ये कह देते हैं कि बड़े बड़े शहरों में छोटी मोटी वारदातें होती रहती हैं।
ये इंडिया भी अजीब है
कभी बिल्किस की चीख किसी को सुनाई नहीं देती
तो कभी गोधरा में खड़ी ट्रेन में खुद से ही आग लग जाती और 59 मर जाते हैं
कभी "नोबडी किल्ड जेसिका" अख़बारों की हेडलाईन बन जाती है।
ये इंडिया भी अजीब है
दिल्ली में मेट्रो बन जाती है तो हम बड़े खुश हो जाते हैं
कभी लगता है कि देश वाकई तरक्की कर रहा है
लेकिन एक विदेशी अपने ही देश में आकर स्लडॉग मिलियनेयर बनाकर हमें आईना दिखा जाता है।
वाकई ये इंडिया भी अजीब है।
जय हिन्द
Friday, July 31, 2009
लव आज कल
Tuesday, July 21, 2009
तलवा चाटू विदेश नीति
जॉर्ज फर्नाडिज़ जो कि तत्कालीन रक्षा मंत्री थे, अमेरिका में सुरक्षा जांच के नाम पर तो उनके कपड़े ही उतरवा लिये।
यही नहीं सोमनाथ चैटर्जी (पूर्व लोकसभा स्पीकर) के साथ एक ऑस्ट्रेलियन एयर लाइंस ने भी ऐसा ही किया,
एक बार जब बुश भारत के दौरे पर थे तो उसके पर्सनल गार्ड्स ने महात्मा गांधी की समाधि की खोजी कुत्तों से तलाशी ली।
लेकिन लानत है हमारे नेताओं पर ऐसी घटना के बाद भी कोई ऐसी कारवाई नहीं जिससे एक आम भारतीय के दिल में लगी आग बुझा सकें। आखिर ये कैसी फॉरेन पॉलिसी है जिसमें सिर्फ शक्तिशाली देशों के तलवे चाटने का काम होता है। देश का स्वाभिमान कहां गया, शायद वाजपेयी जी के साथ ही बूढ़ा हो गया। जब भी इस तरह की कोई घटना होती है संसद में हंगामा होना तो तय है। विपक्ष के हाथ में मुद्दा मिलता है तो हंगामा होना लाज़िमी है। विपक्ष में बैठी हर पार्टी सबसे बड़ी देश प्रेमी पार्टी नज़र आती है।लेकिन जब कभी दूसरों को जवाब देने का मौका आता है तो सब के सब इसी बिना रीढ़ की फॉरेन पॉलिसी से बंध जाते हैं।
कारगिल में पाकिस्तानी सेना ने आतंकियों के साथ मिलकर घुसपैठ की,तो भारतीय सेना ने तमाम बलिदानों के बाद ऊंचे शिखरों पर विजय प्राप्त कर ली। कारगिल में जब हमारे जवानों ने अपनी चोटियों पर कब्ज़ा कर लिया तब घुसपैठिये भागने लगे। लेकिन सेना ने अपनी आंखों के सामने से उन्हें जाने दिया क्योंकि उनपर गोली चलाने के लिये सरकार ने आदेश नहीं दिये थे। कमाल है ये नेता आखिर किस मिट्टी के बने हैं। आखिर ये कैसी बिना रीढ़ की फॉरेन पॉलिसी है?
Saturday, June 20, 2009
बॉस की मर्सीडीज़

Friday, June 12, 2009
नई पीढ़ी..एकदम कूल

जय हिन्द
Friday, May 29, 2009
अलबलाइटिस
रोग के लक्षणों से आपको वाकिफ कराता हूं.
1- किसी प्रतिद्वंदी से आगे निकलने की होड़ में ऊट पटांग और बिना सिर पैर की बातें करना
2- किसी को नीचा दिखाने के लिये फेंकने की हद पार कर जाना
3- बेहया की तरह सफेद झूठ बोलना
4- बेइज्जत हो जाने के बाद दांत निपोरना
5- अपने आप को सच साबित करने के लिये किसी भी हद तक गिर जाना
6- लोगों के ध्यानाकर्षण के लिये अल-बल बकवास करना और ज़बरन हंसाने की कोशिश करना
7- चुटकुले करने के बाद लोगों के ना हंसने पर अपने ही जोक पर खूब ज़ोर ज़ोर से हंसना ताकि चुटकुले का सम्मान बचा रहे
8- अपने दादा परदादा की इतनी तारीफ करना की लोग उन्हें सुपरमैन समझ लें
9- किसी लड़की के मुस्कुरा देने के बाद दोस्तों को दिखाना कि वो लाइन दे रही है
तो मित्रों कुल मिलाकर इंसान जब अलबला जाता है तो अलबलाइटिस का शिकार हो जाता है.अब तक मेरे द्वारा किये गए रिसर्च में इस रोग के ये मुख्य लक्षण सामने आए हैं.मुझे तो डर लग रहा है क्योंकि इस रोग के कुछ लक्षण मेरे अंदर भी हैं शायद आपके अंदर भी हों.इससे बचने के उपाय पर मेरी रिसर्च जारी है.धन्यवाद
Wednesday, May 27, 2009
ट्रांसफर केबल बाबा की जय हो
बन्दे को ट्रांसफर केबल कहते हैं
उपनाम -फायर वायर.
लंबाई तकरीबन 30 इंच
रंग- काला,सफेद,लाल,हरा इत्यादि
उम्र- अनिश्चितकालीन
खासियत-सारे रिपोर्टरों की नौकरी बचाने की क्षमता
रिपोर्टर जब अपनी युनिट पैक करवा रहा होता है तो कैमरामैन से एक सवाल ज़रूर पूछता है"ट्रांसफर केबल रखी या नहीं".पूछे भी क्यों ना एक ही रात में एक चैनल के एक ही रिपोर्टर के पास गुड़गांव से लेकर ग्रेटर नोएडा तक की खबरें होतीं हैं,सब इन्हीं ट्रांसफर केबल बाबा की देन है.कुछ रिपोर्टरों ने तो इसे ही अपनी जीविका का साधन बना लिया है.और कुछ के लिये यही जीविका का साधन बन गई है.न्यूज़ चैनल्स की भीड़ में रिपोर्टर्स के बीच जो सामंजस्य बन गया है वो ट्रांसफर केबल बाबा का आशिर्वाद ही तो है.रिपोर्टर को CSR (कॉमन सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी) सिखाने का काम भी टी.सी बाबा के आशिर्वाद की ही देन है.किसी भी रिपोर्टर की नौकरी कभी भी खतरे में पड़ जाए, बड़ी से बड़ी खबर छूट जाए या फिर छोटी से छोटी, टेन्शन नहीं लेने का ट्रांसफर केबल बाबा के पास जाने का..कभी कभी आस पास से गुज़र रहे लोगों की नज़र उन कैमरों पर अनायास ही पड़ जाती है जो कार की छत पर या फिर बोनट पर या फिर ज़मीन पर रखे होते हैं और उन सब में से निकले हुए ट्रांसफर केबल एक दूसरे में कुछ इस तरह जुड़े होते हैं कि समझ में ही नहीं आ रहा होता कि आखिर कौन किसे ट्रांसफर दे रहा है,और कौन किससे ट्रांसफर ले रहा है.दोस्तों यही तो ट्रांसफर केबल बाबा की माया है.तो सभी रिपोर्टर भक्तों ज़ोर से बोलो-ट्रांसफर केबल बाबा की जय हो
पत्थर
और आज मैं सोचता हूं,एक वो भी अभिषेक था.करीब एक साल पहले नोएडा में शीबा नाम की एक एक्स एयर होस्टेस का मर्डर हो गया.हम वहां पहुंचे तो अस्पताल की शवगृह में उसकी लाश रखी थी.कुछ देर तक हम सारे रिपोर्टर्स वहां खड़े होकर एक दूसरे से सीएसआर(कॉमन सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी) के तहत शॉट्स और डिटेल्स का आदान प्रदान कर रहे थे.थोड़ी देर में लाश से रिस रहा खून पास में खड़े रिपोर्टर्स के पांवों तक पहुंच गया.हंसी ठिठोली में मशगूल मैंने कहा "अरे थोड़ा साइड हो जाओ वर्ना 120 बी में तुमलोग भी बुक हो जाओगे." और हम सब एक कदम दूर हटकर खड़े हो गए और फिर से अपनी अपनी बकवास करने लगे.थोड़ी देर बाद मुझे एहसास हुआ कि कोई हमें देख रहा है.मरने वाली का ब्वॉयफ्रेंड हमें बहुत देर से देख रहा था.जब मेरी नज़रें उससे मिलीं तो मैं शर्मिंदा हो गया.लेकिन वो मुझसे पूछ बैठा "तुम लोग रिपोर्टर हो या पत्थर".और तब से मुझे वाकई एहसास होता है कि हमारे अंदर का एहसास मर चुका है.खून और लाशें देख-देख कर अब उनकी कोई कद्र नहीं रह गई है.
Monday, May 18, 2009
भोकाल टाइट तो फ्यूचर ब्राइट
Tuesday, April 14, 2009
नेता का पहाड़ा
प्रश्न- किसी ज़माने में एक दूसरे के दुश्मन बने नेता जब चुनाव के वक्त एक दूसरे का हाथ थाम लेते हैं,तो देश का कैसे उद्धार होता है...
उत्तर- ये है नेता का पहाड़ा.
नेता एकम् नेता
नेता दूनी भाषण
नेता तीया अनशन
नेता चौके प्रदर्शन
नेता पंचे चंदा
नेता छके फंदा
नेता सते गोलमाल
नेता अठे हड़ताल
नेता नवे देशनाश
नेता दहईया सत्यानाश...
गुस्ताखी माफ
Friday, April 10, 2009
तुम्हारे लिये-
जब तुम मेरे आसपास नहीं होते हो तो कभी कभी तुम्हारी खुश्बू सांसों में आ जाती है और लगता है कि तुम यहीं कहीं हो.एक आंसू आंखों से निकलकर गाल पर लुढ़कता है और तुम्हारी गर्माहट का एहसास कराता है.कोई हवा का झोंका पास से गुज़रता है तो ऐसा लगता है मानों तुमने मेरा नाम पुकारा है.फिर पलट कर देखता हूं तो कोई नहीं होता कोई भी नहीं.पूरे घर में सन्नाटा भांय भांय कर रहा होता है.ना जाने फिर किस सोच में डूब जाता हूं.तुम्हारी तस्वीर देखकर मैं क्या सोचता हूं ये मुझे खुद ही याद नहीं रहता.क्योंकि इतना कुछ सोच जाता हूं की शायद वो याद्दाश्त से बाहर हो जाता है.तुम्हें पहली बार जब देखा था.तुम जब पहली बार मुस्कुराये.जब तुम मेरे दिल के इतने करीब आए.और तब से लेकर आज का दिन तुम्हारी तस्वीर देखते ही बहुत तेज़ी से मेरी आंखों के सामने से गुज़र जाता है.चाहता हूं की उस वक्त उन तेजी से भाग रहे पलों में से किसी एक को दबोच लूं और उसमें एक बार फिर से जी लूं.पर शायद यहां बैठकर तुम्हारा इंतेज़ार करना उन बीते लम्हों से ज्यादा अच्छा है...है ना
लड्ढा
आरुषि के घर के आस पास रात की शिफ्ट के रिपोर्टर सो रहे थे, मैं मॉर्निंग शिफ्ट में वहां पहुंचा तो देखा की सब अपनी अपनी गाड़ी से बाहर निकलकर जम्हाइ और अंगड़ाईयां ले रहे थे.तभी एक रिपोर्टर ने नुपुर तलवार का शेड्यूल याद दिलाते हुए कहा कि आज वो मंदिर जाएंगी और फिर डॉ. तलवार से मिलने डासना जेल जाएंगी.सभी कैमरामैन अपनी अपनी पोज़िशन लेकर तैनात हो गए. मानो बंकर में घुस रहे हैं और दुश्मन पर हमले का वक्त आ गया है.नुपुर तलवार आई तो सबने उसके मुंह पर कैमरा और माइक लगा दी.वैसे तो उससे पूछने के लिये तमाम सवाल थे लेकिन सवाल पूरे नहीं हो पाए और नुपुर मंदिर जाने के लिये अपनी कार में बैठ गई , लेकिन तब तक सारे रिपोर्टर और कैमरामैन वहां से गायब हो चुके थे.दरसल वो अपनी कारों की ओर भागे और फिर नुपुर की गाड़ी के चारों ओर न्यूज़ चैनल्स की गाड़ियां नज़र आ रही थीं.सीन कुछ ऐसा था मानो नुपुर तलवार नहीं कोई वीवीआईपी का काफिला चल रहा हो.कुछ कैमरामैनों ने रिपोर्टर्स से अपने पैर पकड़वाये, अरे भाई गाड़ी से बाहर लटक के शॉट्स जो बना रहे थे.खैर इस काफिले में एक चैनल की गाड़ी सबसे पीछे थी.उसके पास मारुति वैन जो थी.उसके अंदर बैठे रिपोर्टर ने ड्राइवर से गाड़ी तेज़ चलाने को कहा.लेकिन गाड़ी के गति पकड़ते ही वो रिपोर्टर अपनी सीट पर टप्पा खाता हुआ नज़र आया, उसके हाथ में एक सिगरेट भी थी जो कार में ही कहीं गिर गई .कुछ दूरी पर एक रेड लाइट पर नुपुर की कार रुकी, साथ साथ सारे चैनल्स की कारें भी रुकी.30 सेकंड की रेडलाइट में भी कैमरामैन कोई मौका नहीं गंवाना चाहते थे.सो वो लपक कर कारों से उतरे और नुपुर की कार में आकर चिपक गए.पीछे से उस चैनल की वैन आ रही थी. वैन उस रेड लाइट पर रुकी और उसका कैमरामैन गाड़ी से उतरकर नुपुर के शॉट्स लेने के लिये बढ़ा.लेकिन उसके दो कदम बढ़ाते ही लाइट ग्रीन हो गई और सबकी कारें हवा से बातें करने लगीं.आखिर में अपनी कार से हार मानकर उस रिपोर्टर ने दूसरे रिपोर्टर को फोन करके कहा कि जब सब शूट हो जाए तो ट्रांसफर दे देना.उसके बाद से हमारे एक मित्र पत्रकार ने उस गाड़ी का नामकरण कर दिया.अब भी हम उस कार को लड्ढा कहकर पुकारते हैं.