एक बार मैं आरुषी हत्याकांड की कवरेज पर था.दरसल मैंने 16 -17 मई 2008 से लेकर 30 जून 2008 तक सिर्फ यही काम किया था.रोज़ सुबह उठकर वहीं नोएडा के सेक्टर 25 पहुंच जाता, फिर शाम को वहां से घर पहुंचकर सो जाता.खैर इस केस से मैंने बहुत कुछ सीखा लेकिन इस ब्लॉग में मैं आपको आरुषि केस की एक ऐसी घटना के बारे में बताता हूं जो आपको हंसने पर मजबूर कर देगी.
आरुषि के घर के आस पास रात की शिफ्ट के रिपोर्टर सो रहे थे, मैं मॉर्निंग शिफ्ट में वहां पहुंचा तो देखा की सब अपनी अपनी गाड़ी से बाहर निकलकर जम्हाइ और अंगड़ाईयां ले रहे थे.तभी एक रिपोर्टर ने नुपुर तलवार का शेड्यूल याद दिलाते हुए कहा कि आज वो मंदिर जाएंगी और फिर डॉ. तलवार से मिलने डासना जेल जाएंगी.सभी कैमरामैन अपनी अपनी पोज़िशन लेकर तैनात हो गए. मानो बंकर में घुस रहे हैं और दुश्मन पर हमले का वक्त आ गया है.नुपुर तलवार आई तो सबने उसके मुंह पर कैमरा और माइक लगा दी.वैसे तो उससे पूछने के लिये तमाम सवाल थे लेकिन सवाल पूरे नहीं हो पाए और नुपुर मंदिर जाने के लिये अपनी कार में बैठ गई , लेकिन तब तक सारे रिपोर्टर और कैमरामैन वहां से गायब हो चुके थे.दरसल वो अपनी कारों की ओर भागे और फिर नुपुर की गाड़ी के चारों ओर न्यूज़ चैनल्स की गाड़ियां नज़र आ रही थीं.सीन कुछ ऐसा था मानो नुपुर तलवार नहीं कोई वीवीआईपी का काफिला चल रहा हो.कुछ कैमरामैनों ने रिपोर्टर्स से अपने पैर पकड़वाये, अरे भाई गाड़ी से बाहर लटक के शॉट्स जो बना रहे थे.खैर इस काफिले में एक चैनल की गाड़ी सबसे पीछे थी.उसके पास मारुति वैन जो थी.उसके अंदर बैठे रिपोर्टर ने ड्राइवर से गाड़ी तेज़ चलाने को कहा.लेकिन गाड़ी के गति पकड़ते ही वो रिपोर्टर अपनी सीट पर टप्पा खाता हुआ नज़र आया, उसके हाथ में एक सिगरेट भी थी जो कार में ही कहीं गिर गई .कुछ दूरी पर एक रेड लाइट पर नुपुर की कार रुकी, साथ साथ सारे चैनल्स की कारें भी रुकी.30 सेकंड की रेडलाइट में भी कैमरामैन कोई मौका नहीं गंवाना चाहते थे.सो वो लपक कर कारों से उतरे और नुपुर की कार में आकर चिपक गए.पीछे से उस चैनल की वैन आ रही थी. वैन उस रेड लाइट पर रुकी और उसका कैमरामैन गाड़ी से उतरकर नुपुर के शॉट्स लेने के लिये बढ़ा.लेकिन उसके दो कदम बढ़ाते ही लाइट ग्रीन हो गई और सबकी कारें हवा से बातें करने लगीं.आखिर में अपनी कार से हार मानकर उस रिपोर्टर ने दूसरे रिपोर्टर को फोन करके कहा कि जब सब शूट हो जाए तो ट्रांसफर दे देना.उसके बाद से हमारे एक मित्र पत्रकार ने उस गाड़ी का नामकरण कर दिया.अब भी हम उस कार को लड्ढा कहकर पुकारते हैं.
बस गदहा मत बनना...
8 years ago
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ReplyDeleteतुम कमाल का लिखते हो भाई..ये घटना तो हम सबकी आंखों के सामने हुई थी..लेकिन तुमने इस घटना को वारदात बना दिया..सच मैं भी खूब हंसा इसे पढ़कर..कमाल के दिन थे वो..अब शायद ही कभी वापस आएं..है ना
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