Monday, June 2, 2014

उल्टा प्रदेश

यहाँ सब उल्टा है भाई।  भगवन ने इंसानो में फर्क नहीं किया, लेकिंग भारत के इतिहास में उप्र  में राज करने वा यादव खानदान, इस बात के लिए हमेशा याद किया जाएगा कि वोट बैंक के लिए तुष्टिकरण कैसे करते हैं।

बदायूं में सामूहिक बलात्कार  और हत्या के मामले में सीधा गृह सचिव को ही हटा दिया, जबकि उनके सजातीय थानाध्यक्ष उसी थाने में तैनात हैं। अजीब बात है।

कहने को लोहिया की मानसिकता और समाजवाद का परचम लेकर राजनीति कर रहे यादव परिवार को अगर चिंता है तो बस अपने वोटबैंक की।  पुरे उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों में बाबू से लेकर चपरासी तक यादव भरे मिल जाएंगे, ऐसा हम नहीं कह रहे, खुद जाकर देख लीजिये।  मुझे तो लगता है की सभी जाति  के स्त्री-पुरुषों  का दिमागी स्तर  एक जैसा होता है, फिर क्या कारण  है की एक जाति  विशेष ही उप्र  में हर सरकारी विभाग में काबिज़ है?

मैं किसी जाती विशेष से कोई बैर नहीं रखता, लेकिन क्या सब कुछ देखकर भी चुप रहना ठीक है? बोलना तो पड़ेगा, मुझे या फिर किसी और को। ऐसे तुष्टिकरण की राजनीति के खिलाफ तो सबको बोलना चाहिए।  आखिर यादव हों  या मुस्लिम, महिलाएं तो सबके घर में हैं, बिजली  तो सबको चाहिए, स्कूल, कॉलेज, सरकारी अस्पताल भी चाहिए, फिर क्यों भला जातिवाद और तुष्टिकरण की राजनीती में लिपटे हुए हैं।

एक नेता का काम सबको सामान दृष्टि से देखना होता है, अगर आप यादवों और मुसलमान वोटबैंक  के लिए ही पलक  पांवड़े  बिछाये रहेंगे तो कानून व्यवस्था की यही स्थिति होगी।  किसी को भी कानून को अपनी बपौती  नहीं समझना चाहिए और जाती धर्म के आधार पर करवाई भी नहीं करनी चाहिए।

कम से कम लोकसभा चुनाव में हुई करारी हार के बाद यादव परिवार को ये समझ लेना चाहिए।  

Sunday, April 11, 2010

स्लडॉग रिपोर्टर


एक दिन मैं जी मेल पर अपने एक पुराने मित्र के साथ चैटिंग कर रहा था।उसने मुझसे पूछा कि तुम कहां हो और क्या कर रहे हो। मैंने तपाक से टाइप किया भाई वहीं पर हूं स्टिल ए स्लमडॉग रिपोर्टर।फिर मेरे मित्र ने पूछा कि मैंने ऑरकुट, फेस बुक, जीमेल हर जगह अपने को स्लडॉग रिपोर्टर क्यों लिख रखा है। मेरे जवाब ने उसे हैरत में डाल दिया। दरसल स्लमडॉग रिपोर्टर वो होता है जो किसी दलित चैनल में काम करता है। है।जो खबरें तो ब्रेक करता है लेकिन किसी को पता ही नहीं चलता ।वो एक्सक्लूज़िव भी करता है लेकिन किसी के कान में जूं नहीं रेंगतीं। अपनी हर खबर को उसे बड़े चैनल के रिपोर्टर को तोहफे के तौर पर देनी पड़ती है ताकि उसका इम्पैक्ट हो। दिन भर बस खबरों के पीछे भागता रहता है और जब पेट में दर्द होता है तो याद आता है कि खाना तो सुबह से खाया ही नहीं। फिर दो कदम आगे चलता है तो उसे महसूस होता है कि उसका ब्लैडर फटने को है, क्योंकि जब से शूट पर निकला है तब से ट्वायलेट करने का वक्त ही नहीं मिला।अपने शरीर हर तरह से अत्याचार करता है।जब रात को वो घर पहुंचता है तो उसकी हालत देखकर ऐसा लगता है मानो एक बीघा खेत को दस ट्रैक्टरों ने एक साथ जोत दिया हो। रात को दो बजे सोता है तो सुबह नींद बॉस के फोन से खुलती है। सुबह सात बजे का लाइव मांगता है। बेचारा बिन नहाए धोए स्पॉट पर पहुंच जाता है।अगर बुलेटिन शुरू होने तक लाइव पर खड़ा नहीं हुआ तो एसाइनमेंट सिर पर धनिया बो देता है और बॉस छाती पर चरस बो देता है। कुछ पुलिस वाले मित्रों के साथ बैठकर अपने आपको दिल्ली का राजा समझता है। बाहरी दुनिया के लोगों में उसकी बहुत अहमियत है ,लोग उसे बहुत बड़ा आदमी समझते हैं इसलिये वो लोगों को अपनी सैलरी नहीं बताता।कभी किसी को बता भी देता है तो उसे विश्वास नहीं होता।कभी कहीं से कोई जबरदस्त ऐतिहासिक स्टोरी करके ला देता है तो पता चलता है कि ये स्टोरी यहां नहीं चल सकती।उसके पास कपड़े धोने का वक्त नहीं होता मजबूरी में उसे बदबूदार कपड़े पहनने पड़ते हैं।लेकिन शेव हर रोज़ करना होता है वर्ना बॉस की गालियां पड़ेंगी और पीटीसी भी ऑन एयर नहीं होगा।उसके पड़ोसी भी नहीं जानते की घर में वो कब रहता है, क्योंकि जब वो सोते हैं तब रिपोर्टर घर पहुंचता है और उनके उठने से पहले ही ऑफिस के लिये निकल जाता है। बड़ा ही जीवट प्राणी होता है ये स्लमडॉग रिपोर्टर। मां से मिलने के लिये उसे छुट्टियां नहीं मिलतीं।मां और भाई हर रोज़ एक सवाल ज़रूर करते हैं कि घर कब आना होगा। कभी कभी उसे काफी इज्जत मिलती है जब किसी की गाड़ी पकड़ ली जाती है या फिर कोई पुलिस के पचड़े में फंस जाता है तो उसे स्लमडॉग रिपोर्टर याद आता है।कभी मैच के पास जुगाड़ने तो कभी मोबाइल खोने की रपट लिखवाने में वो लोगों की गाहे बगाहे मदद कर दिया करता है। यही स्लमडॉग रिपोर्टर कहलाता है।

Sunday, February 28, 2010

अपराधबोध


होली से एक दिन पहले मैं रात देर से सोया।
सुबह कई फोन आते रहे तो मोबाइल साइलेंट करके फिर सो गया।
फिर अचानक मां का फोन आया लेकिन मोबाइल तो साइलेंट रह गया था।
मैं जब उठा कॉल बैक किया तो भाई ने फोन उठाया और बोला-मां बहुत गुस्सा है, रो भी रही है।मैंने उससे कहा उससे तुरंत बात कराओ। मैं घबरा गया था । मां ने काफी मुश्किल से आंसू रोककर फोन लिया और मुझसे कहा-कि सुबह बड़े पापा (ताऊजी) का बेटा दरवाजे पर आया था, मां ने चश्मा नहीं लगा रखा था और उसे लगा कि मैं आ गया हूं ,उसे सर्प्राइज़ देने। वो खुशी से पागल सी हो गई और दौड़कर उसके पास गई लेकिन जैसे ही वो दिखा उसका दिल धक्क सा कर गया। खैर उसे बिठा कर चाय पिलाई। फिर मुझे फोन मिलाया था।इतना कुछ सुनकर एक अजीब सा अपराधबोध हुआ। अंजाने में मां को इतना दुख पहुंचाकर मैं भी रो पड़ा। ख़ैर अपने मन को ये दिलासा दिलाई कि वो तो बुद्धू है उसे क्या पता रिपोर्टर की नौकरी कैसी होती है, उससे जल्दी ही आने का झूठा वादा करके उसके दिल को तसल्ली दे दी, और फिर ऑफिस के लिये निकल पड़ा। फिर एक मित्र को फोन करके सारी व्यथा सुनाई और जमकर चैनल को कोसा, उसके बाद अपनी औकात पर आया और पूछा यार कोई खबर तो नहीं है ना अभी ? कुछ हो तो बता देना।

Wednesday, January 13, 2010

राष्ट्रीय खेल कौन?बूझो तो जानें


किंग खान की फिल्म चक दे इंडिया से प्रेरित होकर मैंने ये टाइटल रखा है। वाकई में फिल्म और वास्तविकता में ज़मीन आसमान का फर्क होता है। देश के लिये एक बड़े शर्म की बात है कि राष्ट्रीय खेल की ये दुर्दशा है। हॉकी खिलाड़ी मुफ्त में मिलने वाली सरकारी नौकरी ना कर देश के लिये खेलना चाहते हैं। लेकिन बात साफ है-भूखे भजन ना होत कृपाला।


पता नहीं किसी के कान पर जूं क्यों नहीं रेंगती। किसी को देश का इतना बड़ा अपमान क्यों नज़र नहीं आता। आखिरकार जब हॉकी खिलाड़ियों ने भारतीय जनतंत्र के सबसे पापुलर हथियार (हड़ताल) का इस्तेमाल किया तभी जाकर सारे कैमरों का रुख उनकी ओर हुआ। और ये बात सच है कि कैमरों का रुख अगर उनकी ओर ना होता और सारे चैनल हड़ताल की ख़बर को हेडलाइन नहीं बनाते तो शायद कुछ नहीं होता और आईएचएफ के अड़ियल अधिकारी वर्ल्ड कप के लिये वैकल्पिक टीम की व्यवस्था भी करने लगते।

बहरहाल मुद्दा बेइज्ज़ती का है। कई देश में बैठे लोगों ने ये ख़बर देखी होगी कि भारत में राष्ट्रीय खेल के ये दुर्दिन हैं , कि खिलाड़ी पैसा ना मिलने पर हड़ताल पर जा रहे हैं। इससे तो अच्छा है कि इतिहास को रिफ्रेश कर दिया जाए और क्रिकेट को ही राष्ट्रीय खेल बना दिया जाए।

Tuesday, November 24, 2009

26/11 के बाद ढाक के तीन पात

26/11 को मुंबई पर हुआ आतंकी हमला कई मायनों में सबकी आंखें खोल देने वाला था। लेकिन असल में इस हमले के बाद प्रशासन की आंखें कितनी खुलीं हैं
मैं इस पर प्रकाश डालता हूं। मुंबई में समंदर के रास्ते दस आतंकी घुसे पूरे मुंबई में खुलेआम फायरिंग करते रहे। इसके बाद वो अपने ठिकानों पर पहुंचे और कई लोगों को
मारा और बंधक बनाया।मुंबई पुलिस के जवान आतंकियों के सामने पूरी तरह से घुटने टेकते नज़र आए।आतंकियों ने खुलेआम करीब 30 पुलिस कर्मियों को मार डाला
जबकि कवर लेने और छुपे होने बावजूद एनएसजी ने ऑपरेशन ब्लैक टोरोनैडो में 8 आतंकियों को मार गिराया। और इस ऑपरेशन में एनएसजी के महज़ दो जवान शहीद हुए,मेजर संदीप और सिपाही गजेंद्र ।इस तुलना में मुंबई पुलिस ने केवल एक आतंकी को मारा और इस हमले में मुंबई पुलिस
के सारे टॉप कॉप्स शहीद गए। एक चश्मदीद के मुताबिक आतंकियों ने महज 15 सेकंड में पुलिस की कार पर हमला किया और एटीएस चीफ हेमंत करकरे समेत अशोक
काम्टे और विजय सालस्कर को मार डाला कार से सबकि लाशें बाहर फेंककर कार लेकर भाग गए। दरसल इसकी एक सबसे बड़ी वजह थी राज्यों की पुलिस को दी जाने
वाली घटिया और पुराने ज़माने की ट्रेनिंग। किसी जवान के पास आतंकियों को रोकने के लिये डंडा था तो किसी के पास आतंकियों की ए.के 47 और एम.पी 5 के
मुकाबले के लिये थी .303 की अंग्रेजों के ज़माने की रायफलें। किसी जवान के पास करबाइन थी तो वो दो गोलियां चलाने के बाद ही जाम हो गई। कुल मिलाकर किसी
भी पुलिस वाले के पास ना ऐसी तकनीक थी ना ही ऐसी ट्रेनिंग जिससे की वो आतंकियों का सामना कर सकें।इस हमले में पुलिस कर्मियों और आरपीएफ के जवानों समेत करीब
137 लोग मारे गए और करीब 300 लोग घायल हो गए। मुंबई पर हमले के बाद कई तरह के सुरक्षा इंतज़ाम किये गए। लेकिन असलियत तो ये है कि अभी तक मुंबई और
दिल्ली को छोड़कर ज्यादातर राज्यों की पुलिस की हालत खस्ता है। झारखंड में नक्सलियों ने इंस्पेक्टर इंदुवार का सिर कलम कर दिया तो पूरे देश में सनसनी फैल गई। बहुत
कम लोगों को पता होगा कि इंस्पेटक्टर फ्रांसिस इंदुवार का ट्रांसफर होने के 6 महीने बाद उनकी मौत हो जाने तक उन्हें तन्ख्वाह नहीं मिली थी। हद तो तब हो गई जब
नक्सलियों से जूझ रहे बिहार, बंगाल और झारखंड पुलिस के जवानों को लुंगी पहने ड्यूटी करते देखा गया। कुछ राज्यों की पुलिस को ए.के 47 और इंसास दे दी गई
इसका मतलब ये नहीं की मौका पड़ने पर वो उसका इस्तेमाल कर लेंगे। हर वक्त कमाई के चक्कर में उलझे रहने के अलावा ट्रेनिंग लेना पुलिसकर्मियों के बस की बात नहीं।
ऑटोमेटिक हथियार हाथ में पकड़ा देने का ये मतलब नहीं होता कि वो आतंकियों के खिलाफ काम आएंगे। उन हथियारों को चलाने के लिये ज़बरदस्त ट्रेनिंग की ज़रूरत
पड़ती है, और सही मायनों में राज्यों की पुलिस को मिलने वाली ट्रेनिंग लगभग एनसीसी की ट्रेनिंग के बराबर होती है। कुल मिलाकर बात ये है कि अगर आप अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं तो आपको असलियत जानने के लिये ज्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है।
बस घर से निकलिये और चौराहे पर खड़े पुलिसवालों की हरकतें देखिये। आपको ख़तरे का अंदाज़ा खुद-ब-खुद हो जाएगा। लेकिन बात सिर्फ पुलिस को कोसने से खत्म नहीं होती। 26/11 के बाद हमने और आपने कसाब और पाकिस्तन को गालियां देने के अलावा और क्या किया है। ज़रा पीछे जाएं तो हकीकत सामने आएगी। दिल्ली पुलिस के दिलेरों ने बटला हाउस में आतंकियों का एनकाउंटर किया था। उस एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस के सुपरकॉप मोहनचंद शर्मा की मौत हो गई थी। लेकिन उस एनकाउंटर को फर्जी ठहराने की कितनी कोशिश की गई। ये किसी से छुपा नहीं है। अगर हम इसी तरह से हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो 26/11 जैसे हमले होते रहेंगे और बटला हाउस जैसे असली एनकाउंटरों पर सवाल उठते रहेंगे
जय हिन्द

Tuesday, November 10, 2009

कैसे हैं बाबू साहब ?

इस बार मैं अपनी नानी जी की तेरही पर बनारस गया। फिर दूसरे दिन वहां से मुगलसराय अपने घर गया। पापा की नई कार में घूमने की इच्छा थी। बहुत अच्छा लगा। एक दिन का वक्त मिला सिर्फ उसी रात बनारस से ट्रेन पकड़नी थी। मैं घर के छोटे मोटे काम निपटा रहा था कि तभी बाबा जी (दादा जी) ने कहा कि उन्हें डीआरएम ऑफिस जाना है पास बनवाने। मैंने कहा कि मैं उन्हें ले चलूंगा। हम दोपहर में डीआरएम ऑफिस पहुंच गए। पास बनाने वाले क्लर्क से मिलकर जैसे ही हम लौटने लगे तभी ऑफिस के अंदर से एक के बाद एक लोगों की आवाजें आने लगीं। ऐ बाबू साहेब- ऐ बाबू साहेब(पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में रसूख़दार राजपूतों को बाबू साहेब कहकर बुलाते हैं) । मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक आदमी बाबा जी की ओर इशारा करके रुकने को कह रहा था। काफी बुज़ुर्ग था। एक पैर भी नाकाम हो गया था उसका। बाबा जी से मिलकर वो रोने लगा। उसने कहा कि रिटायर होने के बाद उसकी ज़िंदगी नर्क बन गई है। ना उसके बेटे उसे पूछते हैं और ना ही उसकी बहुएं। बेचारा चार डंडों वाली बैसाखी से खुद चार किलोमीटर चलकर डीआरएम ऑफिस पहुंचा था। उसने बाबा जी से भी कुछ ऐसा ही सुनने की उम्मीद की थी। लेकिन मैंने उस वक्त बाबा जी की आखों में जो चमक देखी वो आज तक नहीं देखी थी। बाबा जी ने सगर्व मेरा परिचय उन बुज़ुर्ग जनाब से कराया और कहा "ई हमारा पोता है,दिल्ली में टीवी न्यूज़ चैनल में रिपोर्टर का काम करता है, छुट्टी में घर आया था तो हमको लेकर यहां आ गया, पास बनने को दे दिये हैं, शाम को यही आकर पास ले जाएगा "। उम्र के आखिरी पड़ाव में, करीब 78 साल की उम्र में बाबा जी के चेहरे पर इतनी खुशी देखकर मेरा दिल बाग बाग हो गया। ऐसा लग रहा था मानो जीवन सफल हो गया। पापा से मिले संस्कार ही थे जो इस दिन के लिये तरस रहे थे कि बाबा जी मेरी पीठ पर हाथ रखकर मेरा परिचय अपने दोस्तों से करवाएं और उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाए। उनसे मिलने के बाद बाबा जी से करीब 10 ऐसे ही बुज़ुर्ग मिले और सबने पूछा " कैसे हैं बाबू साहब "। इस पर बाबा जी का जवाब था। "हम तो एकदम ठीक हैं आप सुनायें"। बाबा जी के इस जवाब में कटाक्ष भी था और घमंड भी। लेकिन मेरे लिये तो ये अपनी ज़िंदगी के सबसे अच्छे अनुभवों में से एक था। बाबा जी के चेहरे पर खुशी की वो लकीर तब तक नज़र आई जब तक मैं घर से रवाना नहीं हो गया। इस तेज़ी से बदलती दुनिया में जो बचे खुचे संस्कार हमारे अंदर हैं उसमें अपने बड़ों की इज्ज़त करना सबसे बड़ा संस्कार है। उम्मीद है कि इस घटना को पढ़ने के बाद आपलोग उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंचे एक बुज़ुर्ग की मानसिकता से वाकिफ हो चुके होंगे।
अगर आपके पास भी ऐसा कोई अनुभव हो तो मुझसे ज़रूर बांटियेगा।
धन्यवाद

Sunday, October 25, 2009

बीजेपी का क्या होगा कालिया !

ये सवाल पूछने के लिये किसी कालिया को सामने खड़ा करने की ज़रूरत नहीं।क्योंकि बीजेपी की हालत को देखकर ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने वालों का क्या हश्र होता है। कभी शहरी वोटरों के दम पर सत्ता में आने वाली बीजेपी को आज शहर में ही सबसे कम वोट मिल रहे हैं। इसके पीछे कारण भी बीजेपी के ही पैदा किये हुए हैं। वरुण गांधी और बाल ठाकरे जैसे लोगों का साथ देकर बीजेपी ने शहरी वोटर को भड़का दिया। रही सही कसर पूरी कर दी बीजेपी के अड़ियल और बूढ़े हो चुके नेतृत्व ने।कभी संघ से दूर तो कभी संघ के पास, कभी मंदिर से दूर तो कभी मंदिर के पास, बिन पेंदे के लोटे की तरह बीजेपी लोट रही है। आम वोटर को समझ में नहीं आ रहा कि आखिर वो बीजेपी को वोट क्यों दे। बीजेपी मुख्यालय में जश्न देखे हुए तो अरसा हो गया है। बीजेपी के आला नेता इस बात को भूल गए की परिवर्तन ही जीवन का नियम। वक्त और परिस्थिती के अनुसार इंसान को बदलना ही पड़ता है। वोटर तो बदल गया लेकिन बीजेपी की सोच नहीं बदली। शहर के वोटर को अब मंदिर से मतलब नहीं रह गया। हिन्दुत्व के मुद्दे पर बीजेपी को कोई वोट भले ही दे दे लेकिन आज के वक्त में हिन्दुत्व के पीछे वोट देने वालों की तादात में भारी कमी आ गई है। सिर्फ पारंपरिक वोटरों ने ही बीजेपी की लाज बचा रखी है।यू.पी में वरुण ने मुस्लिम वोट को बीजेपी से दूर कर दिया तो महाराष्ट्र में शिवसेना ने उत्तर भारतीयों को बीजेपी से दूर रखा। विडम्बना तो ये है कि बीजेपी सिर्फ समाज के अलग अलग वर्गों से दूर होती जा रही है। दरसल एक वर्ग के पास आने की चाहत में बीजेपी के नेता इतना आगे निकल जाते हैं कि दूसरे वर्ग से दूर हो जाते हैं। इस बार शहर का पढ़ा लिखा वोटर बीजेपी से दूर हुआ है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के नतीजों से कम से कम ये तो साफ हो गया है। युवा नेताओं के हाथ में कमान देने से ना जाने क्यों आला नेता घबरा रहे हैं।संघ की विचारधारा के खिलाफ कोई भी टिप्पणी करने पर बड़े से बड़े नेता को बाहर जाना पड़ सकता है। नेतृत्व परिवर्तन को बेइज्जती समझा जा रहा है। कोई भी प्रमुख निर्णय लेने के लिये संघ मुख्यालय का रुख करना पड़ता है। ऐसे में बीजेपी का क्या होगा ये तो कालिया भी नहीं बता पाएगा।