
लाल सलाम करके लालगढ़ को लाल रंग में रंग दिया गया।फोर्स भेजी गई थी लाल झंडे वाले दंगाइयों से निपटने के लिये।लेकिन फोर्स के हत्थे चढ़े आम लोग।इन आम लोगों में से कई माओवादियों के साथ नहीं थे।लेकिन इतनी बुरी तरह से पिटने के बाद ये लोग यही सोच रहे होंगे कि इससे अच्छा तो उनके साथ ही होते। बेशक अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी चाहिये, लेकिन बंदूक नहीं। तमाम तर्क ऐसे हैं जो वाम विचारधारा के खिलाफ हैं। इसी बात को लेकर मेरे और मेरे एक कॉमरेड दोस्त के बीच बहस शुरू हो गई। मैंने उससे पूछा कि वो तो लाल सलाम इसलिये करते हैं क्योंकि उनके पास वैसी समस्याएं हैं या फिर वो ऐसे लोगों के प्रभाव में हैं जो उन्हें ये करने के लिये उकसाते हैं। तुम क्यों उनका समर्थन करते हो। उसका जवाब सुनकर मेरे पास अगला सवाल करने की हिम्मत नहीं हुई।उसने कहा कि मैं जहां काम करता हूं वहां मुझे दो साल से सिर्फ दस हजार रुपए मिल रहे हैं। तन्ख्वाह आने के इंतेज़ार में कभी महीने के बीस दिन गुज़र जाते हैं को कभी उससे भी ज्यादा। ये समस्या उसके ऑफिस के सभी कर्मचारियों के साथ थी। सिवाय उसके बॉस के। वो उस परिस्थिती में भी अपनी मर्सिडीज़ से घूमता है। और फाइव स्टार होटलों में मीटिंग करता है। उसने कहा कि जब मकान मालिक को देने के लिये पैसे नहीं होते हैं तो उसे बॉस की मर्सिडीज़ की याद आती है। अगर उसके चार पहिये निकाल कर बेच दिये जाएं तो कंपनी के लिये पसीना बहा रहे दस लोगों की तन्ख्वाह का इंतज़ाम हो जाएगा। मार्क्सवादी या माओवादियों को गलत ठहराना मेरे लिये बहुत ही आसान था।लेकिन अपने मित्र के इस सवाल का जवाब देना उतना ही मुश्किल।क्योंकि शायद ये कोफ्त मेरे अंदर भी है, शायद आपके अंदर भी होगा।लालगढ़ में हंगामा करने वालों और मेरे कॉमरेड मित्र में फर्क बस इतना नहीं कि वो माओवादी हैं और मेरा मित्र मार्क्सवादी, असल फर्क तो ये है कि वो अपने गुज़र बसर के लिये किसी की जी हुजूरी करने के लिये मजबूर नहीं है ,लेकिन मैं और मेरा कॉमरेड दोस्त इस बात से ताल्लुक नहीं रखते। शायद आप भी नहीं।